गिलास आधा भरा है या खाली, इस विवाद में क्यों पड़ें ! आधा भरने का पुरुषार्थ क्यों न करें !!
इसे कहते हैं → Adding life to your time, वरना भगवान को कोसते ही रहेंगे।
Happiness does not happen, you have to make it happen.
जीवन का समय तो नहीं बढ़ा सकते पर बचे हुए समय में खुशियाँ/ संतोष तो भर सकते हैं न !
गौर गोपालदास जी
चावल में से कंकड़ न निकालना अज्ञान है। घातक भी हो सकता है, क्योंकि दाँत टूट सकते हैं।
गुण को उपादेय मान कर ग्रहण करो। दोष को हेय मानकर तजना होगा।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
भविष्य बताने वाले सपने तो प्राय: महापुरुषों को ही आते हैं। साधारण लोगों के सपने तो मन के भावों/ स्वभाव पर ही आधारित होते हैं। भाव अनेक, इसलिये सपने भी भानुमती के पिटारे।
सो सपनों से अपनी पहचान कर सकते हैं; क्योंकि झूठ तो खुली आँख से ही होता है।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
जो दोष का अस्त करे, वह दोस्त।
(अनुपम चौधरी)
भगवान के चरण-चिह्न स्त्रियाँ छू सकती हैं, साधु के चरण क्यों नहीं ?
दादा जी का बहू लिहाज करतीं हैं, उनके फोटो का क्यों नहीं ?
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
संस्कार शिविरों के अनुभवों को तब तक याद रखें, जब तक उनसे ऊपर न उठ जाय (कई शिविरार्थी साधु बन गये जैसे मुनि श्री पूज्यसागर जी)।
कुएं में गिरे व्यक्ति को रस्सी तब तक पकड़े रखना चाहिये जब तक ऊपर न आ जाये।
शीतल/ प्यास बुझाने वाला जल तो कुएं में ही है। पर उसे पाने के लिये रस्सी, बाल्टी जरूरी हैं।
पूजादि भी साधन हैं, आत्मधर्म प्रकट करने के लिये।
चिंतन
प्रवचन सिर के ऊपर से निकले तो वक्ता की कमी,
हृदय के ऊपर से निकले तो श्रोता की कमी।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जब तक व्यक्ति खुद अपने को संसार के लिये अर्थपूर्ण मानेगा, वह परमार्थ में अर्थहीन रहेगा।
जब संसार के लिये अर्थहीन हो जायेगा तब परमार्थ में उसका अर्थ शुरू होगा।
श्री लालमणी भाई
अपने सारे Tensions गुरु/ भगवान को Transfer कर दें। जैसे बचपन में माँ को Transfer करके सो जाते थे, वह जागकर ध्यान रखतीं थीं। पर उसके लिये आवश्यक है- पूर्ण विश्वास/ समर्पण।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
सही त्याग वस्तु का नहीं, उसके प्रति लगाव का होता है। इसीलिये तप को त्याग के पहले कहा जाता है। तप से मोह कम होता है, तब त्याग स्वतः ही हो जाता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
भोगादि से भी कुछ सकारात्मक ले सकते हैं। इनका भी महत्व होता है।
भोग/ सुविधाओं को पूरा न भोगने से इच्छाओं का निरोध होता है, जिससे और-और पुण्य बंधते हैं, और-और भोग/ सुविधायें मिलती हैं।
चिंतन
मन तो कद से बड़ा पलंग चाहता है। मिल जाने पर और-और बड़ा माँगने लगता है। पहले से ज्यादा खाली हो जाता है, हालांकि बाहर से भरा-भरा दिखाता है।
पर मन भरने पर संतोष और संतोष आने पर आत्मोत्थान शुरू हो जाता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
“दान” शब्द का प्रयोग तो बहुत जगह होता है जैसे तुलादान, पर वह दान की श्रेणी में नहीं आयेगा।
ऐसे ही रक्तदान यह सहयोग/ करुणा में आयेगा, दान में नहीं। धर्म में इसका निषेध नहीं है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
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