Posted by admin on March 31, 2016 at 03:23 pm
निमित्त :-
सिद्ध भी निमित्त (धर्म द्रव्य) के अधीन रहते हैं ! तो हमारी क्या विसात है !!
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
Posted by admin on March 29, 2016 at 05:22 pm
देवपूजा :-
6 आवश्यकों में देवदर्शन नहीं, देवपूजा को लिया है,
देवदर्शन तो जानवरों के लिये आवश्यक है ।
मुनि श्री धवलसागर जी
Posted by admin on March 28, 2016 at 05:08 pm
चारित्र :-
अशुभ क्रियाओं से निवृति ।
पाठशाला
Posted by admin on March 26, 2016 at 05:31 pm
भूल :-
सबसे बड़ी भूल विभाव को ही अपना स्वभाव मान लिया है ।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
Posted by admin on March 25, 2016 at 05:32 pm
विषबेल :-
यदि नारी को विषबेल कहा तो कहने वाले पुरूष विषफल बन जायेंगे ।
नारी विष नहीं, वासना विष है ।
Posted by admin on March 24, 2016 at 05:29 pm
सिद्धक्षेत्रों से निर्वाण :-
जो संख्या बतायी जाती है, वह पूरे चौथे काल की है ।
Posted by admin on March 22, 2016 at 04:52 pm
रत्नत्रय / वीतरागता :-
रत्नत्रय साधन है, वीतरागता साध्य, मोक्ष फल है ।
मुनि श्री प्रशांतसागर जी
Posted by admin on March 21, 2016 at 04:18 pm
संयम :-
धूपदशमी को बहुत उपवास रखे जाते हैं, जबकि “तप” का दिन तो ग्यारस है ?
धूपदशमी “संयम” का दिन है और श्रावकों को संयम कहा, तप तो मुनि महाराज के लिये कहा है ।
चिंतन
Posted by admin on March 19, 2016 at 04:15 pm
“9” :-
ये अंक अनश्वरता का भी प्रतीक है ।
9×2 = 18, 1+8 = 9 आदि ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on March 18, 2016 at 04:12 pm
कर्म की शक्ति :-
कर्म उतना बलवान नहीं,जितना प्रमाद(असावधानी)।
आचार्य श्री – कर्म की शक्ति तो 20%,
प्रमाद की 80% ।
जैसे एक लाख बोर आते हैं,पर आम बहुत कम फलित होते हैं ।
मुनि श्री निर्वेगसागर जी
Posted by admin on March 17, 2016 at 03:12 pm
वीतरागता की ही पूजा क्यों ?
सब शांति चाहते हैं, रागद्वेष/हिंसा अशांति के कारण हैं ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on March 15, 2016 at 03:15 pm
अनुयोग :-
प्रथमानुयोग – बोधि समाधि के लिये
करणानुयोग – परिणामों की विशुद्धि के लिये
चरणानुयोग – चारित्र और स्थिरता के लिये
द्रव्यानुयोग – आत्मा में रूचि बढ़ाने के लिये
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on March 14, 2016 at 03:21 pm
बंध/निर्बंध :-
जो ढ़ेरों कर्म बांध रहे हैं, उनके पीछे पड़ोगे तो पापानुबंधी,
पुण्यात्माओं के साथ पुण्यानुबंधी,
निर्गंथ के पदचिन्हों/शरण में निर्बंध ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on March 12, 2016 at 03:17 pm
प्राण/प्रण :-
प्रण निभाने के लिये, प्राण आवश्यक,
प्रण नहीं तो प्राण की क्या आवश्यकता ?
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on March 11, 2016 at 03:07 pm
आहारांतराय :-
कभी साधु के लाभान्तराय से श्रावक का दानांतराय, कभी कभी साधु के पुण्य से श्रावक का दानांतराय टल सकता है ।
अंतराय कुछ कर्म जनित, कुछ प्रमाद जनित होते हैं ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on March 10, 2016 at 03:03 pm
कारण :-
परम्परा कारण – दूध, घी के लिये,
साक्षात कारण – दूध, दही के लिये,
इसमें असली साक्षात कारण अंतिम समय वाला दूध ।
आज की मुनि मुद्रा, मोक्ष में परम्परा कारण है ।
Posted by admin on March 08, 2016 at 12:17 pm
आत्मा का स्वभाव :-
जल का स्वभाव शीतल ही है पर जब वह अग्नि के ऊपर रखा है, उसमें हाथ ड़ालोगे ?
आत्मा का स्वभाव शुद्ध है पर संसारी अवस्था में मानोगे !!
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on March 07, 2016 at 12:14 pm
पंचपरमेष्ठी :-
पंचपरमेष्ठीयों की जय नहीं बल्कि पंचपरमेष्ठी की जय कहते हैं, जबकि पंचकल्याणकों की जय कही जाती है, ऐसा क्यों ?
भगवान की मूर्ति में पाँचों परमेष्ठी समाहित हो जाते हैं, जबकि कल्याणक अलग अलग होते हैं ।
चिंतन
Posted by admin on March 05, 2016 at 12:11 pm
दुश्मनी :-
भगवान पार्श्वनाथ ने कमठ को कर्मठ कहते हुए कहा – तुम अपना काम करो, मेरा काम तो स्वत: ही हो जायेगा ।
केवलज्ञान के बाद समवसरण में कमठ भी बैठा था पर किसी का ध्यान भी उधर नहीं गया ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on March 04, 2016 at 12:07 pm
बोलियाँ :-
बोलियों के कुछ लाभ भी हैं –
१. रागद्वेष से बचते हैं
२. व्यवस्थाओं के लिये अधिक राशि एकत्रित हो जाती है
३. दान न देने वाले भी प्रेरित होकर देते हैं
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on March 03, 2016 at 00:59 am
सम्पन्नता और पाप क्रियायें :-
सम्पन्नता पाप क्रियाओं से जल्दी और ज्यादा मिलती है ।
(पर और पापी बनाती है )
Posted by admin on March 01, 2016 at 01:59 pm
कायोत्सर्ग :-
कायोत्सर्ग खड़े होकर ही क्यों ?
लेटते/बैठते तो शरीर को आराम देने के लिये, कायोत्सर्ग में शरीर से ममत्व छोड़ना ।
चिंतन