सन्यासी पृथ्वी का नमक है – बाइबिल
(मात्रा में कम, महत्व बहुत)।
सत्संग ही स्वर्गवास है।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
आजकल हर व्यक्ति में डेढ़ अक्ल है।
एक ख़ुद की, आधी पूरी दुनियाँ की अक्ल का जोड़।
ब्र. भूरामल जी
(आचार्य श्री विद्यासागर जी के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का पूर्व नाम)
वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं।
फिर मेरा क्या है ?
सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(23 अक्टूबर)
* राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित
हाथ की चार उँगलियाँ अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण।
चारों उँगलियाँ मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अँगूठे) को अविरति आदि (उँगलियां) दबा लेतीं हैं।(उसका प्रभाव समाप्त/ दब जाता है)
चिंतन
* प्रण लिया जाता है
मरण के समय प्राय: कहा जाता है “दिवंगत आत्मा को शांति मिले”।
इसका क्या अर्थ हुआ ? … उनके जीवन में पहले वैभव आदि सब कुछ था पर शांति नहीं थी क्योंकि हमने उनके लिए वैभव आदि नहीं मांगा।
हम क्या कर रहे हैं ?
वही वैभव इकट्ठा करने में अपने जीवन की शांति नष्ट कर रहे हैं। हमारे जाने के बाद भी यही कहा जाएगा… “दिवंगत आत्मा को शांति मिले”!
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(16 अक्टूबर)
दान…..जो श्रद्धा के साथ आंशिक रूप से दिया जाता है।
त्याग… तेरा तुझको अर्पण यानी कर्म का कर्म को* कर्म से मुक्ति** पाने के लिए।
भिक्षा… प्राय: अनादर के साथ जो दिया जाए।
भेंट… के साथ में स्वार्थ सिद्धि जुड़ी रहती है। गिफ्ट लिफ्ट लेने के लिए दी जाती है।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
* जो कुछ भी हमारे पास त्याग करने योग्य है, वह पुण्य रूपी कर्म का दिया हुआ ही तो है। उसको वापस करने का मतलब… पुण्य को और बढ़ाना। तो पुण्य कर्म ने दिया हमने कर्म को बढ़ा कर वापस किया।
** पाप कर्मों से मुक्ति, पुण्य कर्म तो बाद में अपने आप झर जाते हैं।
काँटों का भी अपना महत्त्व होता है।
यदि वे न होते तो हम कितने कीड़े मकोड़ों को कुचलते चले जाते तथा फूल भी सुरक्षित न रह पाते।
हमारे निंदक भी तो हमारे लिए कांटे के रूप हैं। अगर वे न होते तो कितने कर्म कटने से रह जाते, हम अपनी आत्मा को कुचलते हुए चले गए होते और हमारे गुण सुरक्षित/ विकसित ना हो पाते।
चिंतन
दुनियाँ उसको कहते भैया जो माटी का खिलौना* है,
मिल जाए तो माटी** भैया, ना मिले तो सोना*** है।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(29 अक्टूबर)
* मात्र खेलने के लिए, यथार्थ में कोई कीमत नहीं।
** प्राप्त की कोई कीमत नहीं।
*** अप्राप्त बहुत कीमती और आकर्षक लगता है।
वैराग्य से संसार छूटता है।
तत्त्वज्ञान* से मोक्षमार्ग पर बने रहते हैं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
* धर्म का ज्ञान
भक्ति में चारौ दान –>
- मानसिक पुष्टि (औषधि दान)
- तालियों से शरीर पुष्ट (आहार)
- परम्परा निभाई (अभय)
- विनती आदि (ज्ञान दान)
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
प्रश्न यह नहीं कि आपके पास शक्ति, सामग्री, संपत्ति कितनी है ! प्रश्न है कि व्यक्ति कैसा है!! क्योंकि यह तीनों तो अधम को भी प्राप्त हो जाती हैं। आज के साधन प्राय: अवनति के कारण हैं, विरले ही लोग उनके होते हुए प्रगति करते हैं।
पिछले जन्म से रत्न की गाड़ी भर के लाए थे, कचरा भर के ले जा रहे हैं। प्रश्न यह नहीं की सीढ़ी है या नहीं, प्रश्न यह है की सीढ़ी लगी कहां है ? कुएं के पास या छत के पास, नीचे ले जाने को या ऊपर जाने को !
व्यक्त नहीं अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है/ अभिप्राय महत्वपूर्ण है। मंदिर जाने का विचार इसलिए किया क्योंकि डॉक्टर ने कहा था (सेहत बनाने को) व्यक्त तो सही लग रहा है लेकिन आपका अभिप्राय उच्च नहीं।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
जैसे नख़ और केश बार-बार उग आते हैं, वैसे ही कर्मोदय है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
(जैसे नख़/ केश को बार-बार काटना पड़ता है ऐसे ही कर्मों को बार-बार कम करना पड़ेगा वरना मैल भर जाएगा, बीमारियां पैदा होंगी/ दु:ख पैदा होंगे)
लौकिक जो संसार बढ़ाये।
अलौकिक जो संसार घटाये। (धर्म का)
पारलौकिक जो संसार से परे का हो जैसे आत्मादि।
चिंतन
The Thinker* sees the invisible, feels the intangible**, and achieves the impossible.
(J.L.Jain)
(*जैसे भगवान/ Omniscient observer)
(**जो स्पर्श से जाना न जासके/ जिसमें रस, रूप, गंध, वर्ण, शब्द, आदि कोई भौतिक गुण न हों)
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