भोग / सुविधायें

भोगादि से भी कुछ सकारात्मक ले सकते हैं। इनका भी महत्व होता है।
भोग/ सुविधाओं को पूरा न भोगने से इच्छाओं का निरोध होता है, जिससे और-और पुण्य बंधते हैं, और-और भोग/ सुविधायें मिलती हैं।

चिंतन

मन तो कद से बड़ा पलंग चाहता है। मिल जाने पर और-और बड़ा माँगने लगता है। पहले से ज्यादा खाली हो जाता है। हालांकि बाहर से भरा-भरा दिखाता है।
पर मन भरने पर संतोष और संतोष आने पर आत्मोत्थान शुरू हो जाता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

“दान” शब्द का प्रयोग तो बहुत जगह होता है जैसे तुलादान, पर वह दान की श्रेणी में नहीं आयेगा।
ऐसे ही रक्तदान यह सहयोग/ करुणा में आयेगा, दान में नहीं। धर्म में इसका निषेध नहीं है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

धर्म अंदर से भरता है। प्राय: यह भ्रम रहता है कि बाहर से भरता है इसीलिये धर्म पर से विश्वास घट रहा है।
धर्म (सार्वभौमिक है) और धार्मिक क्रियायें अलग-अलग हैं। भगवान को देखें पूर्ण अभावों में भी पूर्ण प्रसन्न।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

निमित्त तथा नियति को एक समय में एक को ही महत्व देने का मतलब उसकी अधीनता स्वीकार करना। लेकिन दोनों तथा अन्य कारणों (पाँचों संवाय जैसे स्वयं की क्षमतादि) को महत्व देने का मतलब किसी एक की अधीनता को नहीं स्वीकारना।

शांतिपथ प्रदर्शक

तिलक लगाने की परम्परा क्यों ?
आचार्य श्री विद्यासागर जी… ठंडी में केसर (गरम होती है) का, गर्मियों में चंदन में कपूर मिलाकर लगाने से गर्म/ ठंडा मस्तिष्क रहता है, ऊर्जा मिलती है, ध्यान लगाने में सहायक।

मुनि श्री विनम्रसागर जी

कर्ता, भोक्ता, स्वामित्व भावों को कर्तित्त्व भाव कहते हैं। पर इनसे अहम् आने की सम्भावना रहती। ये भाव संसार तथा परमार्थ दोनों में आते हैं।

क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी

पानी में काई होती है, तब पानी काई के रंग का दिखने लगता है। पर पानी काई नहीं हो जाता है।
आत्मा में कर्म हैं। तब आत्मा उन कर्मों के अनुरूप व्यवहार करने लगता है। फिर भी आत्मा कर्म रूप नहीं हो जाता है।

आर्यिका पूर्णमति माताजी

मिट्टी का घड़ा बाहर की गर्मी को अंदर प्रवेश नहीं करने देता।
मनुष्य भी तो मिट्टी से बना/ मिट्टी में ही (घड़े की तरह) मिल जाता है।
तब हम क्यों नहीं घड़े का यह गुण अपने अंदर उतार सकते!

कर्म हमको घुमाता (घन-चक्कर करता) है, पर वह भी हमारे द्वारा घूमता है (कर्म अपना फल देकर दुबारा फिर-फिर बंध कर आता रहता है)।

क्षु. श्री जिनेन्द्र वर्णी जी

जब भगवान हर जगह है तो मंदिर क्यों जायें ?
भगवान हर जगह हैं कहाँ ?
हाँ ! हर जीव भगवान बन सकता है।
जैसे कलेक्टर हर जगह नहीं है। हाँ ! हर व्यक्ति कलेक्टर बन सकता है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

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April 8, 2022

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