Posted by admin on November 29, 2016 at 1:25 AM·

व्रत और संवर :-

व्रत प्रवृत्तियात्मक होते हुये भी क्योंकि सावधानी पूर्वक किये जाते हैं इसलिये संवर में कारण होते हैं ।

पाठशाला

Posted by admin on November 28, 2016 at 10:55 AM·

पुण्य :-

श्रद्धा की अपेक्षा – हेय है,
ज्ञान में – ज्ञेय है,
चारित्र में – उपादेय है ।

पाठशाला

Posted by admin on November 26, 2016 at 10:12 AM·

समय की इकाई :-

मिनिट/घंटे के व्यवहार से पहले –
60 घड़ी का एक दिन = 8 पहर का व्यवहार होता था ।

विदेह क्षेत्र में आज भी यही व्यवस्था है ।

पाठशाला

Posted by admin on November 25, 2016 at 08:12 AM·

दृष्टि :-

शरीर पर दृष्टि रखने से राग भी बढ़ सकता है और वैराग्य भी ।

चिंतन

Posted by admin on November 24, 2016 at 10:14 AM·

नियति :-

भगवान के ज्ञान रूप वस्तु का परिणमन नहीं होता, बल्कि वस्तु के परिणमन रूप भगवान के ज्ञान में झलकता है ।

Posted by admin on November 22, 2016 at 11:15 AM·

आवश्यक/अनिवार्य :-

आवश्यक जैसे नींद, जो पापानुबंधी पुण्य है,
अनिवार्य जैसे मंदिर जाना जो पुण्यानुबंधी पुण्य है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

Posted by admin on November 21, 2016 at 03:59 AM·

पाप/पुण्य :-

पुण्य से बचने वाला पाप से कभी नहीं बच सकता ।

Posted by admin on November 19, 2016 at 05:14 PM·

मूलप्रतिमा :-

इसमें मन ज्यादा इसलिये लगता है क्योंकि ज्यादातर लोगों के भाव मूलप्रतिमा में ज्यादा लगते हैं ।

Posted by admin on November 18, 2016 at 02:30 PM·

निदान :-

मांगना ही निदान है ।

Posted by admin on November 17, 2016 at 03:59 AM·

वैराग्य :-

क्योंकि हम अपना परिणमन/मरण देख नहीं पा रहे हैं, इसलिये वैराग्य-भाव नहीं आते ।
वैराग्य-भाव आने पर टिकते नहीं क्योंकि इन भावों में भी परिणमन होता रहता है ।

मुनि श्री समयसागर जी

Posted by admin on November 15, 2016 at 11:55 AM·

शरीर की पवित्रता :-

शरीर की पवित्रता रत्नत्रय से होती है जैसे निर्मली के ड़ालने से गंदा पानी पवित्र हो जाता है ।

चिंतन

Posted by admin on November 14, 2016 at 10:42 PM·

साधु समाधि :-

समाधि के बाद पीछी कमंड़ल पेड़ पर इसलिये लटका देते हैं ताकि वे देव गति में इन्हें देखकर अच्छे भाव रखें ।

Posted by admin on November 12, 2016 at 12:57 PM·

अकृत्रिम चैत्यालय :-

अकृत्रिम चैत्यालय में अरिहंत की प्रतिमाओं को “जिन” और सिद्धों की प्रतिमाओं को “सिद्ध” कहते हैं ।

Posted by admin on November 11, 2016 at 11:27 PM·

नमन :-

देव्यो नम: = सब/कई देवों को नमन (बहुवचन)
देवाय नम: = एक देव को नमन (एकवचन)

Posted by admin on November 10, 2016 at 01:17 PM·

ज्ञान का स्वामी :-

क्या ज्ञान मस्तिष्क में है ?
ज्ञान तो शरीर के हर प्रदेश में है ।

Posted by admin on November 08, 2016 at 02:20 PM·

गॄहस्थी में पाप/पुण्य :-

गृहस्थ यदि विवेक/सावधानी रखे तो उनके पाप के साथ साथ पुण्य बंध भी होगा ।

Posted by admin on November 07, 2016 at 01:40 PM·

स्वर्ग :-

स्वर्ग में भी तो इंद्रिय सुख है, फिर वह अच्छा कैसे ?

धर्मध्यान के अनुकूल अवसर खुले रहते हैं ।

Posted by admin on November 05, 2016 at 02:20 PM·

देव :-

देवता और भगवान में फर्क ?

देवता नाम/आयु कर्म की अपेक्षा से बनते हैं ।
देव (अरिहंत) घातिया कर्मों के क्षय से/आत्मसाधना से ।

Posted by admin on November 04, 2016 at 01:30 PM·

स्वरूप :-

श्रीमद् रायचंद के अनुसार –
स्वरूप जानने वाला मतार्थी नहीं हो सकता,
आत्मार्थी ही होगा ।

क्षु. श्री ध्यानसागर जी

Posted by admin on November 03, 2016 at 03:59 AM·

निर्जरा :-

फल अपने आप पक कर गिरें तो फटकर बेकार हो जाते हैं, ऐसे ही सविपाक निर्जरा ।

चिंतन

Posted by admin on November 01, 2016 at 04:15 AM·

मूढ़ता :-

गुणी को अवगुणी कहने में जितना दोष है उतना ही अवगुणी को गुणी कहने में है ।
तठस्थ भाव रखने को कहा है ।