Posted by admin on May 29, 2015 at 00:09 AM ·
मुंड़न :-
आदिपुराण – गंधोदक सिर पर लगाकर, मुंड़न के बाद पूजा के बचे द्रव्य सिर पर ड़ालें ।
साधूओं का आशीर्वाद लें ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on May 28, 2015 at 03:09 PM ·
उत्तम तप :-
तप तो खुद ही उत्तम है, फिर इसके साथ उत्तम क्यों लगाया ??
निर्जरा कि अपेक्षा से, महाव्रतियों के तप को उत्तम कहा है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on May 27, 2015 at 03:01 PM ·
उपसर्ग :-
उपसर्ग प्राय: व्यंतर देव ही करते हैं पर वैमानिक तक चारों जाति के भी करते हैं ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 26, 2015 at 03:11 AM ·
चक्रवर्ती और अवधिज्ञान :-
चक्रवर्तियों को अवधिज्ञान होने का नियम नहीं है ।
सर्वार्थसिध्दि से आये तो सबको होता है ।
हुंड़ावसर्पिणी के अलावा भी चक्रवर्ती मोक्ष, स्वर्ग तथा नरक जा सकते हैं ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 25, 2015 at 09:17 AM ·
योग :-
जहाँ (मन/वचन या काय) आत्मा का उपयोग/प्रयोग होगा वही योग कहलायेगा ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 22, 2015 at 09:25 AM ·
प्रतिमा / महाव्रत :-
ब्रह्मचर्य प्रतिमा और ब्रह्मचर्य महाव्रत में अंतर – प्रतिमा वाले के अब्रम्ह का तो त्याग है, पर उसके फल (बाल-बच्चों) का नहीं ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on May 21, 2015 at 09:06 AM ·
द्रव्यों का स्थान :-
हर प्रदेश में 5 अमूर्तिक द्रव्यों के एक साथ रहने में तो दिक्कत नहीं पर पुदगल तो मूर्तिक हैं ?
सूक्ष्म पुदगल हर प्रदेश पर रह सकते हैं ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 20, 2015 at 12:04 PM ·
दिव्यध्वनि :-
इसमें जितना भाग समझ आ जाता है वह सत्य वचन,
जो समझ ना आये वह अनुभय ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 19, 2015 at 09:03 AM ·
हिंसा :-
हिंसा चलने आदि क्रियाओं में नहीं,
बल्कि प्रमाद में है – कैसे चलते हैं ।
मुनि श्री विनिश्चयसागर जी
Posted by admin on May 18, 2015 at 12:25 PM ·
सिद्ध प्रतिमा :-
प्राय: सिद्ध आकृतियाँ मंदिर में दिखती हैं ।
उनकी प्रतिष्ठा नहीं, शुद्धि होती है ।
Posted by admin on May 15, 2015 at 03:46 PM ·
मोह :-
यदि हम अपने प्रियजनों के बिना रह नहीं सकते, साथ साथ भोजन, जीना-मरना चाहते हैं तो मानना – हम निगोदिया बनने की तैयारी कर रहे हैं ।
क्षु. मनोहरलाल जी वर्णी
Posted by admin on May 14, 2015 at 03:44 PM ·
केवलज्ञान :-
जन्म से अंधे व्यक्ति को जैसे नज़र मिल जाये, केवलज्ञान मिलने पर ऐसा ही अनुभव होता है ।
आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी
Posted by admin on May 13, 2015 at 03:40 PM ·
रत्नत्रय :-
समयसार गाथा 12 आदि के अनुसार 6,7 गुणस्थान में व्यवहार रत्नत्रय होता है, जो निश्चय रत्नत्रय का कारण है ।
प्रश्नोत्तरी 2 – पेज 151
Posted by admin on May 12, 2015 at 11:18 AM ·
सम्यग्दर्शन :-
सम्यग्दर्शन क्यों नहीं हो रहा है ?
क्योंकि हम भगवान के तो हाथ जोड़ते हैं, पर जुड़ते संसार से हैं ।
होगा तब, जब हम संसार को हाथ जोड़ लेंगे और भगवान से जुड़ जायेंगे।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on May 11, 2015 at 11:15 AM ·
सामान्य केवली :-
सामान्य केवली की पूजा क्यों नहीं होती ?
इन्होंने तो सिर्फ अपना कल्याण किया, तीर्थंकरों ने अपने साथ हमारा भी ।
(पिता और चाचा एक ही पीढ़ी के होते हैं पर पिता को विशेष सम्मान इसलिये क्योंकि उन्होंने हमारा पथप्रदर्शन करके हमारा कल्याण किया)
Posted by admin on May 08, 2015 at 01:02 PM ·
रयणसार :-
रयणसार – छोटा सा ग्रंथ, जैसे घड़े का पानी, पर प्यास बुझाने में सक्षम हैं।
छोटा सा कांटा भी पूरे शरीर में कंपन कर देता है ।
समयसार आदि समुद्र हैं, प्यास बढ़ा देते हैं ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on May 07, 2015 at 12:56 PM ·
शास्त्र/ग्रंथ :-
शास्त्र – वीतरागी मुनियों द्वारा लिखित, अकाट्य ।
ग्रंथ – मुनियों या विद्वानों द्वारा लिखित ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on May 06, 2015 at 09:54 AM ·
सूतक :-
सुबह तक सूतक मानें।
क्योंकि रात और दिन को अलग अलग माना गया है ।
तभी तो रात्रि भोजन त्याग करने पर प्रतिवर्ष 6 माह के उपवास का लाभ कहा है ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on May 05, 2015 at 03:03 PM ·
तीर्थंकर :-
तीर्थंकर सबसे सुंदर क्यों ?
सुंदरता किससे मिलती है ?
पुण्य कर्म से ।
सबसे बड़ा पुण्य क्या ?
तीर्थंकर प्रकृति ।
तो सबसे सुंदर शरीर तीर्थंकरों का ही होगा न !!
पाठशाला
Posted by admin on May 03, 2015 at 02:59 PM ·
अनुभव :-
भगवान की वाणी को आचार्य भगवंत अपने अनुभव में उतारने के बाद आगम की रचना करते हैं ।
ब्र. निलेश भैया
Posted by admin on May 01, 2015 at 02:52 PM ·
स्वाध्याय :-
यह दान भी है, वैयावृति भी है ।
श्री धवला जी के अनुसार स्वाध्याय रत्नत्रय का प्रासुक दान है ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी