Posted by admin on April 29, 2015 at 02:49 PM ·
नियम :-
वसुनंदी श्रावकाचार तथा भगवती आराधना के अनुसार यम (मरण पर्यंत) नियम लेने वाला 5 गुणस्थान प्राप्त कर सकता है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
Posted by admin on April 28, 2015 at 03:40 PM ·
सिद्धांत ग्रंथ :-
श्रावकों के द्वारा सिद्धांत ग्रंथ पढ़ना ऐसा ही है जैसे दूध के दातों से लोहे के चने चबाना ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on April 27, 2015 at 03:29 PM ·
अंतराय :-
गलत उपयोग (अभिप्राय) के साथ भी यदि कोई सही योग कर रहा हो (जैसे रावण की साधना), तो भी विघ्न ड़ालने पर अंतराय कर्म का बंध होता है ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on April 24, 2015 at 03:21 PM ·
त्याग/आकिंचन्य :-
त्याग, वस्तु को अपना मान कर किया जाता है, घमंड़ आने की संभावना ।
आकिंचन्य में छोड़ते समय वस्तु “पर” लगती है, घमंड़ का प्रश्न ही नहीं ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on April 22, 2015 at 09:13 AM ·
मोह/कषाय :-
कषाय उसकी ही तीव्र होती है, जिसका मोह तीव्र होता है ।
क्योंकि कषाय, मोह ( चारित्र मोहनी ) का ही तो भेद है ।
चिंतन
Posted by admin on April 21, 2015 at 09:10 AM ·
अक्षय तृतीया :-
आज के दिन भगवान ऋषभदेव ने 13 माह और 9 दिन के बाद आहार ग्रहण किया था।
6 माह तक तो उनका नियम था, उसके बाद जब उठे तो किसी को भी आहार देने की विधि मालूम नहीं थी ।
राजा श्रेयांस ने जातिस्मरण से पता लगा और उन्होंने विधि पूर्वक आहार दिया ।
आज के दिन उनको गन्ने के रस का आहार दिया था ।
चूंकि आज तृतीया का दिन है इसलिये ” तृतीया ” नाम पड़ा और “अक्षय” शब्द इसलिये आया क्योंकि भगवान को ऋद्धि थी ( सभी भगवानों को होती है) कि जिस पात्र से उनको आहार देते हैं वह कभी समाप्त नहीं होता है ।इसलिये उसका नाम था अक्षय पड़ा।
जब भगवान का आहार हुआ तो पंचाश्चर्य हुये । पंचाश्चर्य यानि देवों द्वारा रत्नों की वर्षा, पुष्पों की वर्षा, सुगंधित हवा का बहना, आकाश में बाजे बजना और जय जयकार की ध्वनि ।
आज से ही दान-तीर्थ शुरू हुआ, आहार दान कैसे करते हैं इसकी परम्परा शुरु हुयी ।
Posted by admin on April 20, 2015 at 12:35 PM ·
सम्मूर्छन और सम्यग्दर्शन :-
सम्मूर्छन से उत्पन्न जीवों के उपशम सम्यग्दर्शन नहीं होता है ।
महामच्छ के क्षयोपशम ही होता है ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on April 17, 2015 at 02:32 PM ·
देव :-
रागी देवी/देवताओं को कुदेव कहते हैं, वीतरागी भगवान को देव,
तथा देवायु का उदय होने की अपेक्षा चतुर्निकाय के देवताओं को भी देव कहा है ।
प्रश्नोत्तर संख्या – 28
Posted by admin on April 15, 2015 at 02:28 PM ·
जीव पुण्य/अजीव पुण्य :-
पुण्य दो प्रकार के हैं –
जीव पुण्य – मंद कषाय व शुभोपयोग / शुभ परिणाम
अजीव पुण्य – 68 पुण्य प्रकृतियाँ
प्रश्नोत्तर संख्या – 2/163
Posted by admin on April 14, 2015 at 02:25 PM ·
पुण्य/पाप जीव :-
समयग्दृष्टि नरक में भी पुण्य जीव है, मिथ्यादृष्टि स्वर्ग में भी पाप जीव ।
पहले गुणस्थान वाले पाप जीव, चौथे वाले पुण्य जीव, तीसरे गुणस्थान वाले मिश्र जीव होते हैं ।
प्रश्नोत्तर संख्या – 2/163
Posted by admin on April 13, 2015 at 02:20 PM ·
शुचिता और केवलज्ञान :-
शुचिता की पराकाष्ठा में आत्मा शीशे की तरह साफ हो जाती है ।
संसार उसमें प्रतिबिम्बित होने लगता है, इसी को तो केवलज्ञान कहते हैं ।
मुनि श्री सुधासागर जी
Posted by admin on April 10, 2015 at 03:39 AM ·
सम्यक् चारित्र :-
तीनों योगों का रोकना ( तथा कम करना ) है ,सम्यक् चारित्र ।
श्री उत्तम पुराण – 481
Posted by admin on April 08, 2015 at 02:48 AM ·
लेश्या :-
अशुभ लेश्या जीने नहीं देती,
शुभ लेश्या मरने नहीं देती है ।
Posted by admin on April 07, 2015 at 02:46 PM ·
द्रव्यलिंगी :-
ये सच्चे मार्ग को विक्षिप्त कर सकते हैं पर विलुप्त नहीं ।
ब्र. नीलेश भैया
Posted by admin on April 06, 2015 at 09:40 AM ·
नियम :-
एक दिन का नियम मत बोलो, 364 दिनों का असंयम बोलो ।
(नियम का घमंड़ हो सकता है, असंयम का पश्चाताप रहेगा तो और नियम लोगे)
मुनि श्री सुधासागर जी
Posted by admin on April 04, 2015 at 09:38 AM ·
भगवान के कर्म क्षय :-
भगवान कर्मों को मार देते हैं ?
सज्जन बनने के लिये बुरी आदतों को मारते नहीं है, वे प्रतिकूलता देखकर स्वयं समाप्त हो जाती हैं ।
चिंतन
Posted by admin on April 03, 2015 at 09:25 AM ·
प्रत्येक शरीर :-
वनस्पति के अलावा सब जीवों के प्रत्येक शरीर ही होते हैं ।
पर वनस्पति में साधारण भी होते हैं ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on April 01, 2015 at 03:25 PM ·
तप :-
भरत चक्रवर्ती को मुनि अवस्था मिलने के अंतर्मुहूर्त बाद ही केवलज्ञान हुआ ।
ऐसे ही तीर्थंकरों को दीक्षा लेने के अंतर्मुहूर्त बाद ही मन:पर्यय ज्ञान होता है ।
कारण ?
बड़ी बड़ी महत्वपूर्ण चीजें तप के द्वारा ही प्राप्त होती हैं ।
ब्र. श्रेयांस भैया