Posted by admin on January 31, 2015 at 02:28 PM ·

निगोदिया :-

(नि) नियम से गोद लेने वाला ही निगोदिया ।
(गोद लेते हैं अपने ही कुल वालों को)

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

Posted by admin on January 28, 2015 at 02:55 PM ·

तीर्थंकर प्रकृति :-

इसके बंध के साथ साथ पाप प्रकृतियों का भी बंध होता है ।
पर उदय से पहले वे पाप प्रकृतियाँ (घातिया) क्षय हो जाती हैं ।

चिंतन

Posted by admin on January 26, 2015 at 02:53 PM ·

मोह/राग :-

राग – वस्तु से आकर्षण
मोह – वस्तु स्वरूप की भूल (विपरीत)

Posted by admin on January 24, 2015 at 02:48 PM ·

पुण्य/पाप :-

पुण्य के साथ पाप भी जुडा रहता है (हर पुण्य बंध में, पाप प्रकृति बंधती ही है ) ।
जैसे लंबी आयु ,पुण्य से ही मिलती है,
पर लंबी आयु वालों को बहुत से छोटी आयु के परिवारजनों का मरण देखना पड़ता है ।

चिंतन

Posted by admin on January 21, 2015 at 12:15 PM ·

उपादान/निमित्त :-

अपने अलावा हम किसी को नहीं बदल सकते, अपने अलावा कोई हमें नहीं बदल सकता ।
प्रत्येक पैर में उठने की सामर्थ (उपादान) है, पर एक पैर दूसरे का निमित्त बनेगा ही ।

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

Posted by admin on January 19, 2015 at 01:24 PM ·

काललब्धि :-

यह लाई जाती है, ये हमें ले जा नहीं सकती ।
ग्वालियर स्टेशन आता नहीं है, पूर्व और वर्तमान के पुरूषार्थ से लाया जाता है ।
पांच पूर्व की चोटों के बाद छठे में पत्थर टूटता है ।

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

Posted by admin on January 17, 2015 at 02:14 PM ·

उपसर्ग :-

कमठ ने पार्श्वनाथ भगवान का उपसर्ग दूर नहीं किया ।
पार्श्वनाथ भगवान ने कमठ का उपसर्ग दूर किया ।
(सम्यग्दर्शन प्रकट कराके)

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

Posted by admin on January 14, 2015 at 03:34 PM ·

हठ :-

आदिनाथ भगवान के 6 माह तक तप करते समय 4000 मुनि भ्रष्ट हो गये थे,

तो 6 माह बाद भगवान के आचरण को देखकर सुधरे क्यों नहीं ?

हठीला स्वभाव ।

चिंतन

Posted by admin on January 12, 2015 at 02:19 PM ·

ज्ञान/चारित्र :-

आचरण रहित ज्ञान और ज्ञान रहित आचरण व्यर्थ है ।

वास्तव में चारित्र धर्म है – समयसार ।

Posted by admin on January 10, 2015 at 03:30 PM ·

सत्य/असत्य :-

अकलंक/निकलंक ने भगवान की मूर्ति लांघते समय,मूर्ति पर एक धागा ड़ाल दिया था।

सत्य असत्य हो गया था, वीतरागता राग में बदल गयी थी ।

मुनि श्री मंगलानंद जी

Posted by admin on January 07, 2015 at 04:48 PM ·

मोहनीय कर्म :-

नरक में भी इसका उदय रहता है, पर द्वेष रूप ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

Posted by admin on January 05, 2015 at 04:17 PM ·

सम्यग्दृष्टि :-

जो सोचता है/विश्वास करता है – मैं किसी का भला बुरा नहीं कर सकता ।

मुनि श्री मंगलानंद जी

Posted by admin on January 03, 2015 at 12:15 PM ·

नुकसान :-

तीव्र ज़हर की कम मात्रा, कम समय में भी नुकसान अधिक जैसे मिथ्यात्व ।

कम तीव्रता वाले की – अधिक मात्रा, अधिक समय में भी, कम नुकसान जैसे योग, कषाय ।

चिंतन

Posted by admin on January 01, 2015 at 01:07 AM ·

विक्रिया :-

अनेक शरीर धारण करने पर भी कर्मबंध एक शरीर के बराबर ही बंधेगा,

क्योंकि उपयोग तो एक ही रहेगा ।

मुनि श्री कुंथुसागर जी

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