Posted by admin on June 29, 2015 at 11:27 PM ·
आकिंचन्य :-
ना कोई जरूरत,
ना कोई आवश्यकता ।
(श्रीमति नेहा)
Posted by admin on June 27, 2015 at 11:06 PM ·
गणधर :-
सारे गणधर मोक्ष जाते हैं ।
आचार्य श्री का भी यही मत है ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on June 26, 2015 at 03:32 PM ·
सोला :-
सोला के कपड़ों में दूसरों को न छूने का नियम तो लो, पर दूसरे आपको छू लें तो दोष उनको पड़ेगा, आप अपने भाव क्यों खराब करें !!
Posted by admin on June 25, 2015 at 03:00 AM ·
सामायिक :-
रौद्र, आर्त ध्यान से दूर रहना ।
Posted by admin on June 24, 2015 at 11:00 AM ·
आराध्य :-
आचार्य भी उपाध्याय व साधू की वंदना करते हैं/णमोकार पढ़ते हैं ।
Posted by admin on June 22, 2015 at 11:52 AM ·
धन :-
धन सजीव ही होता है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on June 20, 2015 at 11:48 AM ·
एकेंद्रिय के हुंड़ा ही क्यों ?
शोलों के साथ चिंगारी आती ही है ।
एक पापकर्म के साथ दूसरे पापकर्म चिपके रहते हैं ।
चिंतन
Posted by admin on June 19, 2015 at 03:18 PM ·
कल्याण :-
अनादि मिथ्यादृष्टि के तो संस्कार भी नहीं होते, फिर भी अपना कल्याण कर लेते हैं, हमारे तो संस्कार उच्चकोटी के हैं !!
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on June 18, 2015 at 03:15 PM ·
मनुष्य :-
संज्ञी का अनुभाग ज्यादा होता है,
मनुष्य का सबसे ज्यादा ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on June 17, 2015 at 10:29 PM ·
भगवान :-
भगवान जन्म नहीं लेते, बनते हैं ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on June 15, 2015 at 12:32 PM ·
स्वर्ग/नरक में काल विभाजन :-
मनुष्यलोक में ज्योतिषी देवों के गमन से ही स्वर्ग/नरक में भी काल विभाजन होता है ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on June 13, 2015 at 12:22 PM ·
वैयावृत्ति :-
मुनियों के अंतराय हो जाने पर आचार्य श्री उनके सिर पर घी ड़ालते हुये कहते हैं – ” मैं अभिषेक किये देता हूँ, तुम (दूसरे साधू/श्रावक) परमार्जन कर लेना ।”
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on June 12, 2015 at 12:30 PM ·
परिणमन / क्रिया :-
परिणमन (वर्तना) – आंतरिक
क्रिया – बाह्य ।
चिंतन
Posted by admin on June 11, 2015 at 12:27 PM ·
वज्रनाभि :-
वैराग्य भावना वाले (आदिपुराण – 1/11 पर्व) तथा पार्श्वनाथ के पूर्वभव वाले दोनों अलग अलग हैं,
पर दोनों विदेह क्षेत्र में हुये थे ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on June 10, 2015 at 12:18 PM ·
परिग्रह :-
संघ में आचार्यश्री / साधुजन, श्रावकों को आदेश नहीं देते वरना उनका परिग्रह (सेवकों) हो जायेगा ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी
Posted by admin on June 08, 2015 at 12:15 PM ·
वृषभ :-
व्रज वृषभ नाराच संहनन में वृषभ का मतलब – वे मांसपेशियाँ जो हड़्ड़ियों से जुड़ी होती हैं ।
चिंतन
(तो व्रज वृषभ नाराच संहनन वाले को सियारिन खा गयी तो आपत्ति नहीं )
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
Posted by admin on June 06, 2015 at 05:35 PM ·
सूतक :-
तीर्थ पर जाते समय अपना सकलीकरण कर लें (संकल्प कि यात्रा पूरी करके ही लौटूंगा) तो सूतक नहीं लगेगा ।
Posted by admin on June 05, 2015 at 04:05 PM ·
आस्तिक्य :-
सब द्रव्यों का सम्मान करना ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Posted by admin on June 04, 2015 at 03:57 PM ·
भगवान की आत्मा :-
14 वें गुणस्थान तथा सिद्धों की आत्मा पूर्व शरीर से कुछ कम होती है ।
क्योंकि नाम कर्म का उदय 13 वें गुणस्थान तक ही होता है ।
पाठशाला
Posted by admin on June 03, 2015 at 02:55 PM ·
शरीर / आत्मा :-
जाति आदि शरीराश्रित,
धर्म आत्माश्रित।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
Posted by admin on June 01, 2015 at 01:48 PM ·
सुपात्र को दान :-
ऐसे दान से स्वर्ग जाते हैं ।
दान देने वाला मिथ्यादृष्टि हो या पूर्वबंधायुष्क हो तो भोग भूमि मिलेगी ।
पर श्रावकाचार में भोगभूमि जाने का कथन नहीं है क्योंकि श्रावक यानि सम्यग्दृष्टि ।
मुनि श्री कुंथुसागर जी (द्रव्य संग्रह – 16)