Month: March 2010
मिथ्यात्व/अविरति/कषाय/योग
मिथ्यात्व – 1 गुणस्थान में, अविरति – 1 से 4 तथा 5 गुणस्थान में आधी ( मिश्र ), कषाय – 1 से 10 गुणस्थान में,
कर्म-प्रकृति
जो कर्म-प्रकृतियां आगामी भव में उदय योग्य नहीं होतीं, उनका वर्तमान भव में बंध नहीं होता । जैसे लब्धिपर्याप्त तिर्यंच को देवगति, गत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियक
कर्म
दुश्मन ताकतवर हो तो हमला दोनों ओर से करें – बाहर से क्रियायें, अंदर से भी चिंतन आदि, जैसे राजधानी (मन) में जासूस भेजे जाते हैं,
तीर्थंकर प्रकृति
तीर्थंकर प्रकृति का बंध पहले नरक में तो अपर्याप्त अवस्था में बंधता रहता है , ( क्षायिक सम्यग्द्रष्टि के जैसे श्रेणिक महाराज ) दूसरे और तीसरे नरक
महावीर जयन्ती
महावीर भगवान की जयन्ती पर अहिंसा अपरिग्रह अनेकांत आत्मस्वतन्त्रता आपके जीवन में जयवंत हो ।
तीर्थंकर प्रकृति
तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ तो मनुष्य पर्याय में ही होता है, चौथे से सातवें गुणस्थान में । बाद में तीन गतियों ( तिर्यंच के अलावा
दान/त्याग
दान त्याग से पहले की स्थिति है । दान आंशिक है तथा त्याग पूर्ण है । नहीं छोड़ोगे तो छूट जायेगा ।
तीर्थंकर प्रकृति
उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यग्दर्शन, तीनों में बंधती है ।
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