Month: March 2010

मोह

स्नेह के संसर्ग (तेल) के कारण ही तिल को घानी में पिलना पड़ता है ।

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कर्म-प्रकृति

जो कर्म-प्रकृतियां आगामी भव में उदय योग्य नहीं होतीं, उनका वर्तमान भव में बंध नहीं होता । जैसे लब्धिपर्याप्त तिर्यंच को देवगति, गत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियक

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कर्म

दुश्मन ताकतवर हो तो हमला दोनों ओर से करें – बाहर से क्रियायें, अंदर से भी चिंतन आदि, जैसे राजधानी (मन) में जासूस भेजे जाते हैं,

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तीर्थंकर प्रकृति

तीर्थंकर प्रकृति का बंध पहले नरक में तो अपर्याप्त अवस्था में बंधता रहता है  , ( क्षायिक सम्यग्द्रष्टि के जैसे श्रेणिक महाराज ) दूसरे और तीसरे नरक

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महावीर जयन्ती

महावीर भगवान की जयन्ती पर अहिंसा अपरिग्रह अनेकांत आत्मस्वतन्त्रता आपके जीवन में जयवंत हो ।

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तीर्थंकर प्रकृति

तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ तो मनुष्य पर्याय में ही होता है,  चौथे से सातवें गुणस्थान में । बाद में तीन गतियों ( तिर्यंच के अलावा

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दान/त्याग

दान त्याग से पहले की स्थिति है । दान आंशिक है तथा त्याग पूर्ण है । नहीं छोड़ोगे तो छूट जायेगा ।

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मंगल आशीष

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March 31, 2010