Category: 2013
कर्मों में बटवारा
परनिंदा करने से नीच गोत्र में अनुभाग तीव्र बंधता है, बाकि 6 कर्मों में प्रदेश बंध की प्रमुखता होती है । ऐसे और कर्म प्रकृतियों
सम्यग्दर्शन की पहचान
वो अवधिज्ञानि जो कार्मण वर्गणाओं को जानने की योग्यता रखते हैं तथा मन:पर्यय/केवलज्ञानी जान सकते हैं । वैसे कोई बाह्य चिन्ह प्रकट नहीं होते ।
भावेंद्रियों का आधार
भावेंद्रियों का आधार द्रव्येंद्रियां और आत्मा है ना कि मन । श्री मुख्तार जी – 211
नारकियों में हास्य/रति
नारकियों को हास्य, रति के निमित्त नहीं मिलते इसलिये ये नौकषाय सत्ता में तो रहतीं हैं, पर उदय में नहीं आतीं है ।
ज्ञान ही प्रमाण
“तत्प्रमाणे” तत्वार्थ सूत्र – 1/10 यानि ज्ञान ही प्रमाण है, इंद्रिय प्रमाण नहीं है । सूक्ष्म, दूर का, भूतकाल का इंद्रिय नहीं बता पाती हैं
द्रव्य/गुण/पर्याय
द्रव्य शुद्ध, तो गुण शुद्ध, तभी पर्याय शुद्ध । पंचमकाल में आत्मा को सिर्फ शक्ति रूप ही शुद्ध कह सकते हैं । (जैसे सिपाही, एस.
द्रव्येंद्रिय
निर्वृत्ति – रचना/बनावट आभ्यंतर – आत्मप्रदेश बाह्य – इंद्रियों का आकार/रचना उपकरण – निर्वृत्ति का उपकार करने वाली आभ्यंतर – जैसे नेत्रों का सफेद मंड़ल बाह्य
भावेंद्रिय
लब्धि और उपयोग को भावेंद्रिय कहते हैं । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं । लब्धि के निमित्त से आत्मा के परिणमन को
तीर्थंकर प्रकृति बंध
यह उन जीवों के नहीं होता जिनके मनुष्य या त्रियंच आयुबंध हो गया हो । क्योंकि मनुष्य व त्रियंच सम्यग्दर्शन के साथ कर्मभूमि में मनुष्य
भवप्रत्यय अवधिज्ञान
यह तो देव/नारकियों को ही होता है । तीर्थंकरों के भी गर्भ से ही अवधिज्ञान आता है, वे स्वर्ग/नरक से लेकर ही आते हैं, इसलिये
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