Category: अगला-कदम
व्यवहार
द्रव्य संग्रह जी में कहा है… “पुद्गल के सुख दुःख है”, यह व्यवहार से कहा है/ “पर” वस्तु से सुख दुःख की अपेक्षा से कहा
वर्तना
परिणमन को बनाये रखने की स्थिति वर्तना है। परिणमन को समय सापेक्ष देखेंगे तो व्यवहार हो जायेगा, यदि सिर्फ परिणमन तो वर्तना/ निश्चय काल का
द्रव्याणि
द्रव्याणि पांचवें अध्याय का दूसरा सूत्र है। पहला सूत्र कायवान अजीवों का। तीसरा “जीवाश्च”। बीच का यह (दूसरा) सूत्र Bridge है, पहले तथा तीसरे के
चल अचल प्रदेश
आत्मा में 8 अचल प्रदेश नाभि स्थान पर। पुद्गल में भी होते होंगे। एक प्रदेशी अणु में ? उसे तो चल ही मानना होगा क्योंकि
परमाणु / स्कंध
अनंत परमाणु या स्कंध एक प्रदेश में रह सकते हैं। परमाणु तो सूक्ष्म होते ही हैं, स्कंध वो जो सूक्ष्म हों। जैसे पानी से भरी
उपादान / निमित्त
जीव तथा पुद्गल अपनी-अपनी उपादान शक्ति से गतिशील/ स्थित रहते हैं। फिर धर्म/ अधर्म का क्या प्रयोजन ? एक कार्य के पीछे अनेक कारण होते
नित्य / अवस्थित
नित्य Quality का विषय, अवस्थित Quantity का विषय। आचार्य अकलंक स्वामी ने कहा… नित्यावस्थित यानी हमेशा वैसा बना रहना (पर्याय परिवर्तन तो होगा) जैसे किसी
पर्याय कथंचित् नित्य भी
द्रव्यों के विशेष गुणों का नाश न होने से पर्याय कथंचित् नित्य भी। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र – 5/4)
अजीव + काया
अजीव कायवान 4 द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल) बताये। लेकिन पहले 3 को कायवान उपचार से कहा क्योंकि वे बहुप्रदेशी हैं। सही में काया तो
देवों की अवगाहना
पहले दूसरे स्वर्ग में 7 हाथ*, 3-4 –> 6, 5-8 –> 5, 9-12 –> 4, अब ½, ½ हाथ कम होगी। 13-अः14 –> 3½, 15-16
Recent Comments