Category: 2014
काल का परिणमन
काल द्रव्य के परिणमन में काल द्रव्य ही सहकारी होता है । पर एक कालाणु दूसरे कालाणुओं के परिणमन में सहकारी नहीं, बल्कि हर कालाणु
उपयोग
उपयोग – 1 से 14 तथा सिद्धावस्था में भी, शुद्धोपयोग – 7 से 12 तक, 13, 14 तथा सिध्दावस्था में शुद्धोपयोग का फल । बाई
सम्यक मिथ्यात्व तथा सम्यक प्रकृति की स्थिति
जब इन दोनों का बंध होता ही नहीं तो उदय के समय इनमें स्थिति कहाँ से आ जाती है ? ये दोनों मिथ्यात्व के टुकड़े
धर्म ध्यान
सम्यग्दृष्टि के पहले दो, मिथ्यादृष्टि के शून्य, देशव्रती के तीन और महाव्रती के चारों धर्मध्यान होते हैं । मुनि श्री कुंथुसागर जी
गुणश्रेणी/असंख्यात गुणी निर्जरा
गुणश्रेणी निर्जरा – प्रति समय असंख्यात गुणी बढ़ती हुई । असंख्यात गुणी निर्जरा – पांचवे गुणस्थान की तुलना में छठवें गुणस्थान आदि में । पं.
वृत्तिपरिसंख्यान
मुनियों के मूलगुणों में ये नहीं आता । मुद्रा छोड़ने के बाद कायोत्सर्ग व सिद्धभक्ति करने से पहले, मुनि दुबारा मुद्रा लेकर दूसरे घरों में
10, 11, 12 गुणस्थान
9वें गुणस्थान के तरह, इन गुणस्थानों में भी एक समयवर्ती जीवों के भाव एक से होते हैं । 13वें गुणस्थान तथा आगे ,अलग अलग समयवर्ती
सिद्ध/निगोदिया
दोनों सिद्धालय में एक साथ रहते हैं पर सिद्ध स्थिर, निराकुल, अनंतसुखी, जबकि निगोदिया भटकते रहते हैं, आकुल, दु:खी । चिंतन
परिग्रह/भोगोपभोग
परिग्रह परिमाण व्रत में भोगोपभोग परिमाण नहीं आयेगा । परिग्रह में बाह्य वस्तुऐँ आती हैं, भोगोपभोग में उनका उपयोग । मुनि श्री कुंथुसागर जी
तीसरा गुणस्थान
सादि मिथ्यादृष्टि तो तीसरे गुणस्थान में जा सकता है, अनादि नहीं । क्योंकि अनादि के सम्यक प्रकृति सत्ता में होती ही नहीं तो उदय में
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