Month: July 2010
उत्कृष्ट आयु
चतुर्थ काल में उत्कृष्ट आयु 1 कोटि पूर्व होती है, पर हुंड़ावसर्पिणी की वज़ह से आदिनाथ भगवान की 84 लाख पूर्व ही थी यह
परोपकार
हमारे कमरे के दरवाजे, दूसरों के कमरे में भी खुलते हैं । हम अकेले भी हैं, भीड़ में भी हैं, भीड़ में रहकर अकेले रहने
होनी/ अनहोनी
होनी और अनहोनी तो टलती नहीं , उस समय अपना विवेक प्रयोग करें । मुनि श्री विद्याभूषण जी
सम्यग्दृष्टि के अल्पायु
अनुत्तर, अनुदिश तथा ग्रैवेयिक के देव मरण के बाद जघन्य ,आठ वर्ष + अंतर्मुहूर्त की आयु पाते हैं । इस दौरान कदलीघात नहीं होता ।
प्रारम्भ
अंधेरे में माचिस तलाशता हुआ हाथ, अंधेरे में होते हुये भी अंधेरे में नहीं होता ।
चैत्य-वृक्ष
चैत्य-वृक्ष वनस्पतिकाय नहीं, पृथ्वीकाय होते हैं । ये जीवों की उत्पत्ति और विनाश में भी निमित्त बनते हैं, ये जीव भी पृथ्वीकायिक ही होते हैं।
अवधिज्ञान
देवताओं के अवधिज्ञान की ऊपर की सीमा,उनके विमान की ध्वजदंड तक ही होती है, नीचे की दिशा में, सीमानुसार । भवप्रत्यय वालों के क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान
बड़े बोल
एक पंड़ित जी, मुझे लेकर साहू शांति प्रसाद जी से मिलने गये । साहू जी अधिकतर समय अपनी व्यस्तता का बखान करते रहे कि मेरा
दया
दूसरों पर दया करने की हमारी हैसियत ही नहीं है । आज जिस छोटे व्यक्ति पर आप दया कर रहे हो, ना जाने वही कल
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन
यदि बद्धायुष्क ने नरक आयु बांध ली हो तो सम्यग्दर्शन तो छूटेगा ही, वह जीव सातवें नरक तक जा सकता है । तैजस, क्षायोपशमिक-सम्यग्दॄष्टि के
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