Month: October 2018
साधु-चर्या
साधु-चर्या नित्य एक सी होते हुए भी उबाऊ नहीं, क्योंकि अनुभूति नित्य नयी होती है । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
परमार्थ
जिसका परम-अर्थ हो । यह अध्यात्म में प्राय: प्रयोग होता है, दूसरों के भले में भी इसका प्रयोग होता है ।
सकारात्मकता
जिस क्रिया से सुख मिले उनसे सकारात्मकता आती है पर सिर्फ अपने को सुख देने वाली से नहीं, पर को भी सुख मिले उससे आती
कर्म की चाकरी
जैसे मज़दूर दिन-रात/हारी-बीमारी में भी मज़बूरी में मज़दूरी करता रहता है, ऐसे ही हम सब भी कर्मों की मज़दूरी करते रहते हैं ।
शिष्य
सच्चा शिष्य वह, जो गुरु का मुख नहीं, पीठ चाहे; गुरु प्रतिकूल हों, पर शिष्य अनुकूल रहे/उसका अनुसरण करे, बिना गुरु की कृपादृष्टि पाये भी
मंत्र / तंत्र / यंत्र
पहले मंत्रों को सिद्ध करके काम करवाते थे, फिर तंत्र विद्या आयी ; ये दोनों भावनात्मक थे । अब यंत्र की बहुलता है जैसे क्रेन
अहिंसा और वीतरागता
वैसे तो रागद्वेष भी हिंसा है । पर प्रारम्भिक दशा में अहिंसा को आचार में लें, बाद में विचार में भी । मुनि श्री प्रमाणसागर
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