Month: January 2019
आत्मज्ञ
1. आत्मज्ञान – आत्मा का ज्ञान, 2. आत्मध्यान – आत्मा का चिंतन, 3. आत्मकल्याण – आत्मा के कल्याण हेतु रत्नत्रय धारण करना ! क्षु. श्री
नये मंदिरों की आवश्यकता
कुटुम्ब दादाजी से नहीं, पिता पुत्र से चलता है । व्यापार को भी आगे चलाने के लिये नये नये Item लाये जाते हैं। मुनि श्री
भगवान / देवता
देवता के पास बाह्य वैभव होता है, भगवान के पास आंतरिक । भगवान जन्म-मरण से परे, मुक्त, वीतरागी, अभिशाप/वरदान नहीं । देवता जन्म/मरण से युक्त,
अभिमान
गुरूर में इंसान को कभी इंसान नहीं दिखता, जैसे छत पर चढ़ जाओ तो अपना ही मकान नहीं दिखता… (सुरेश)
पद्म-लेश्या
हृदय स्थल पर पद्म की रचना इंगित करती है कि हमारी पद्म-लेश्या (प्राय:) होना चाहिये । ऐसे जीव, अहिंसा को परम हितैषी मानते हैं ।
अरहंत में दोष
13वें गुणस्थान में कर्म बांध नहीं रहे, पर बंध रहे हैं, जैसे तेल लगे शरीर पर धूल जम रही हो। 14वें गुणस्थान में बंध तो
भारत
“भा” से भाव, “र” से राग, “त” से ताकत । जब कोई किसी को दास बनाता है, पहले उसका नाम बदलकर नया नाम रखता है,
साधु-परमेष्ठी
साधु को परमेष्ठी कारण/कार्य व्यवस्था से नहीं कहा, वे तो हैं ही परमेष्ठी । यदि यहाँ कारण/कार्य व्यवस्था मानें तो चौथे गुणस्थान वाले को रत्नत्रय-धारी
श्रद्धा
श्रद्धा के दो भेद – 1. भावानात्मक झुकाव – संसार व परमार्थ दोनों में । 2. प्रकट रूप को आदर्श मान हृदय में स्थापित, जिसे
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