Month: February 2019
नय
उमास्वामी आचार्यादि ने शास्त्र नय से नहीं, नयों की अपेक्षा लिखे हैं । व्यवहार नय भोजन बनाना, निश्चय उसे खाना । दोनों नयों का उपदेश
संसार बुरा क्यों ?
किसी व्यवसाय में खर्चा/परेशानी ज्यादा, कमाई /सुकून कम हो तो उसको बुरा कहोगे ना ? संसार में भी सुख (सुखाभास) कम, दु:ख ज्यादा, इसलिये बुरा
वीतरागता
वीतरागता – एक शब्द ही हमारा धर्म है, सच्चे देव, गुरु, शास्त्र की पहचान है/उनका मापदंड़ है । गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
सरल तप
सबसे सरल तप – प्रसन्न रहना, इससे पुण्यबंध होता है, पापोदय शांत होता है, तथा कर्म झरते भी हैं । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
आहार दान
आहार दान… औषधि दान है – क्षुधा रोग निवारण की अपेक्षा, वैयावृत्ति है – सुपात्र के रत्नत्रय में सहायक की अपेक्षा । मुनि श्री प्रमाणसागर
ज्येष्ठ / श्रेष्ठ
जो ज्येष्ठ बनने में लग जाते हैं, वे श्रेष्ठ नहीं बन पाते हैं । जो श्रेष्ठ बनने के प्रयास में लग जाते हैं, वे ज्येष्ठ
सम्यक्त्वाचरण
सम्यग्दृष्टी जीव च्यवनप्राश को मीठा नहीं, दवा के तौर पर लेता है, ऐसे ही भोगविलास को । उसके शीलव्रत नहीं होते (चौथे गुणस्थान में), बस
आचार्यों के विशेषण
“एलाचार्य” कुंदकुंद आचार्य की विदेह जाने वाली किवदंती से जुड़ा था । आगम में “बालाचार्य” नाम आता है, जिसे आचार्य पद का उत्तराधिकारी के रूप
स्वयं से प्रेम
संसार में सबसे ज्यादा प्रेम स्वयं से होता है, इसके कारण ही व्यक्ति संसार की ओर भागता है, तथा संसार से दूर भी भागता है,
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