Month: August 2021
आत्मा/ शरीर/ कर्म
आत्मा अमूर्तिक/शुद्ध। शरीर और उसकी क्रियायें मूर्तिक/अशुद्ध। इनमें सम्बंध कर्म के माध्यम से, कर्म ही शरीर के योग्य वर्गणाओं को खींचता है, शरीर बनाता है,
दु:ख
दु:ख अज्ञान में, दु:ख का निवारण?… अज्ञान समाप्त करके । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
सम्यग्दर्शन / सम्यग्ज्ञान
सम्यग्दर्शन—“अ” ऐसा ही बनता है। कैसे जाना ? शिक्षक ने बताया; ज्ञान/प्राम्भिक दशा। बाद में “अ” ऐसा ही होता है— सम्यग्ज्ञान/अंतिम दशा । मन में
अंध-विश्वास
अंध-विश्वास से शुरुवात घातक होती है। विश्वास करने से पहले विचार/ ज्ञान/ विवेक लगायें। अंत में तो विश्वास को अंधा होना ही पड़ता है यानि
यत्नाचार
पुण्यहीन और पुण्यवान का यत्नाचार अलग-अलग होता है… जैसे कुछ आकर्षक देखना चाहते हो… तो पुण्यवान तय करे— किसकी आँख देखना चाहती है! उसको देखने
साधु/व्रती-पद
साधु/ व्रती सदैव याद रखें >> दीक्षा अपने बल/भरोसे पर ली जाती है, औरों/समाज के बल पर नहीं। व्रती को अपने व्रतों के नियंत्रण में
स्वभाव / विकार
स्वभाव – 1) प्रेम/दया आदि राग सहित होता है। 2) निर्विकार/वीतराग – राग रहित होता है। विकार – आकर्षक चीजों के प्रति स्वामित्व भाव आना।
एकता
हाइकु …. “पाँचों* की रक्षा मुट्ठी** में, मुट्ठी बंधी, लाखों की मानी” आचार्य श्री विद्यासागर जी एकता – सहयोग, समन्वय, समादर, संरक्षण से आती है
मुनिपद और प्रभुदर्शन
मुनियों ने आचार्य श्री विद्यासागर जी से पूछा… अष्टापद की यात्रा करने जा सकते हैं? आचार्य श्री – क्यों मुनि चर्या से श्रद्धा उठ गयी
आनंद / मज़ा
संसारियों को आनंद नहीं, मज़ा (मिर्च मसाले वाला) चाहिये। मज़ा में कर्म बंधते हैं, आनंद में कटते/ घटते हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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