Month: November 2024
शब्द
1400-1500 साल पहले श्री राजवार्तिक में आचार्य श्री अकलंकदेव ने कहा था कि शब्द पौदगलिक/ मूर्तिक हैं, उन्हें संग्रह किया जा सकता है। आज वही
सत्संग
सन्यासी पृथ्वी का नमक है – बाइबिल (मात्रा में कम, महत्व बहुत)। सत्संग ही स्वर्गवास है। ब्र. डॉ. नीलेश भैया
सोलह कारण भावना
पहले दर्शन-विशुद्धि भावना भाना आवश्यक नहीं। सोलह भावनाओं में से हर भावना बराबर महत्त्वपूर्ण है/ स्वतंत्र कारण है तीर्थंकर प्रकृति बंध में। (श्री षट्खंडागम, उनकी
मद
आजकल हर व्यक्ति में डेढ़ अक्ल है। एक ख़ुद की, आधी पूरी दुनियाँ की अक्ल का जोड़। ब्र. भूरामल जी (आचार्य श्री विद्यासागर जी के
स्व-पर
वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं। फिर मेरा क्या है ? सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)
मिथ्यात्व के कारण
हाथ की चार उँगलियाँ अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण। चारों उँगलियाँ मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अँगूठे) को अविरति
शांति
मरण के समय प्राय: कहा जाता है “दिवंगत आत्मा को शांति मिले”। इसका क्या अर्थ हुआ ? … उनके जीवन में पहले वैभव आदि सब
तीर्थकर प्रकृति बंध
तीर्थंकर प्रकृति बंध चौथे से सातवें गुणस्थान में (जब पहली बार बंधती है)। यह प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम, क्षयोपशम या क्षायिक सम्यग्दृष्टि के बंधती है। एक बार
कषाय
कषाय = कष (संसार) + आय (Income) कषाय = जो सांय-सांय करे। मुनि श्री मंगलसागर जी
दान आदि
दान…..जो श्रद्धा के साथ आंशिक रूप से दिया जाता है। त्याग… तेरा तुझको अर्पण यानी कर्म का कर्म को* कर्म से मुक्ति** पाने के लिए।
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