Category: 2010

अपकर्षण/अवलंबनाकरण

अवलंबनाकरण-    परभव सम्बंधी आयु की स्थिति का अपकर्षण है । परभविक आयु का उदय नहीं होने से इसका उदयावलि के बाहर पतन नहीं होता, इसीलिये आयु

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प्रदेश

सबसे कम प्रदेश, चक्षु इंद्रिय के होते हैं, इससे संख्यात गुणे, श्रोत इंद्रिय के, इससे कुछ अधिक, घ्राण इंद्रिय के, इससे संख्यात गुणे, रसना इंद्रिय

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तैजस/कार्मण शरीर

ये सर्वत्र अप्रतिघाती होते हैं, जैसे – अग्नि लोहे में प्रवेश कर जाती है । आहारक और वैक्रियिक शरीर भी सीमा के अंदर अप्रतिघाती होते

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शुद्धोपयोग

सातवें से बारहवें गुणस्थान तक ही शुद्धोपयोग क्यों, केवली के क्यों नहीं रहता ? केवली बनने पर ध्याता-ध्येयपने का अवलम्बन नहीं रहता, इसीलिये ध्यान भी

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औदारिक-मिश्र

धवला तथा गोमटसार के अनुसार औदारिक और कार्मण वर्गणायें, अपर्याप्तक अवस्था में ग्रहण करने से इसे औदारिक-मिश्र कहते हैं । पर सर्वार्थसिद्धी के अनुसार औदारिक-मिश्र

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वेदना- समुदघात

उत्कृष्ट-     आत्मा का आकार शरीर के आकार से तीन गुणा तक हो जाता है । निगोदिया जीवों में यह तीन गुणा नहीं बढ़ता है ।

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तीर्थंकर-प्रकृति और सम्यग्दर्शन

तीर्थंकरों में शक्ति तीर्थंकर-प्रकृति की नहीं, मुख्यत: सम्यग्दर्शन की होती है, क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन के यह प्रकृति बंधना ही बंद हो जाती है । एक

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भोग-भूमि

भोग-भूमि के मिथ्यादृष्टि जीव भवनत्रिक देव बनते हैं । पुरूष जम्हाई तथा स्त्री छींक से मरण को प्राप्त होतीं हैं । यहां न अधिक पुण्य

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आयुकर्म की अबाधा

जितनी भुज्यमान आयु शेष रहने पर, पर-भव की आयु बंधे । ( भोगभूमि में 9 माह तथा देव और नारकियों के 6 माह पहले, आयु-बंध

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भाव

एक जीव के – कम से कम : पारिणामिक, क्षायोपशमिक तथा औदायिक – तीन भाव होते हैं, अधिक से अधिक : पांचों के पांचों भाव

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मंगल आशीष

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October 6, 2010

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