Category: 2010
जीव
जीव असंख्यात प्रदेश वाला होने पर भी, संकोच – विस्तार स्वभाव वाला होने के कारण, कर्म से प्राप्त छोटे बड़े शरीर में व्याप्त होकर रहता
वायुकायिक जीव
सांस लेने में बादर या सूक्ष्म वायुकायिक जीवों का प्रयोग होता है ? सूक्ष्म जीव भी बादर वायुकायिक का प्रयोग करते हैं । बादर वायुकायिक
मोड़े
त्रस नाली में दो से अधिक मोड़े नहीं होते। पाणी मुक्ता – एक मोड़ा – हाथ से गिरा मोती । लंगानिका – दो मोड़ा –
ज्ञानावरणी कर्म काटने का उपाय
– जितना बांटो, उतना कटे । – कोई पूछे तो करूणापूर्वक जरूर बताओ ।
अभव्य/दूरान्दूर भव्य
अभव्य में केवलज्ञान प्रकट होने की शक्ति नहीं होती, हालाँकि अंदर शक्ति है । दूरान्दूर भव्य में केवलज्ञान प्रकट होने की शक्ति है पर
लोकांतिक देव
जन्म, जरा और मरण से व्याप्त संसार लोक है । जिनका यह संसार समाप्त हो गया हो । ब्रह्म लोक को लोक माना है,
मतिज्ञान
अकेला मतिज्ञान भी रह सकता है । ( सम्यग्द्रष्टि जीव अंग बाह्य या अंग प्रविष्ट ज्ञान के बिना भी रह सकता है ) पं. रतनलाल
वनस्पति – काय/कायिक/जीव
Original अवस्था के पॄथ्वी, जल और अग्नि को “पॄथ्वी”, “जल” और ” अग्नि” कहा जाता है । लेकिन उसी तरह बीज को “वनस्पति” नहीं कह
देवों में परिग्रह/अभिमान
देवों में ऊपर – ऊपर परिग्रह और अभिमान आदि कम क्यों हैं ? ऊपर – ऊपर देवों में कषाय मंद होने से संक्लेश कम, इससे
शरीर
शरीर एक प्रदेशी नहीं होता, क्योंकि जघन्य से अंगुल के असंख्यात प्रमाण होता है । तत्वार्थ सुत्र टीका – पं. श्री कैलाशचंद्र जी
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