Category: 2010
कर्म प्रकृति में करण
4 आयुयों में संक्रमण करण के अलावा 9 करण होते हैं, शेष प्रकृतियों में दसों करण होते हैं । 1 से 8 गुणस्थान तक भी
कर्म प्रकृति के 10 करण
बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम ( उदय और उदीरणा नहीं ), निद्यत्ति, निकाचित । कर्मकांड़ गाथा : – 357
अबाधा काल
अबाधा काल स्थिति में ही शामिल होता है । श्री रतनलाल बैनाडा जी
148 कर्म प्रकृतियां
148 कर्म प्रकृतियों में से तिर्यंच, मनुष्य और देव आयु को छोड़ कर शेष 145 प्रकृतियों की तीव्र कषाय में स्थिति ज्यादा पड़ती है और
मंद कषाय
देव, मनुष्य और तिर्यंच आयु, मंद कषाय से लंबी स्थिति वाली तथा अधिक अनुभाग वाली बंधती है । और घातिया तथा अघातिया की पाप प्रकृतियां
दिगम्बर मुनि
शरीर से ‘यथाजात’ और आत्मा से ‘यथाख्यात’ दिगम्बर मुनि ही हो सकता है । आचार्य श्री गुप्तिनंदि जी
निगोद
भरत पुत्रों ने ऐसा कौन सा पुण्य किया होगा कि वे मनुष्य बन कर उसी भव से मोक्ष चले गये ? श्री कौन्देय जी के
संस्थान
मनुष्य और तिर्यन्चों के पूरे 6 संस्थान होते हैं, देवों के समचतुरस्त्र तथा नारकी/वनस्पति/विकलेन्द्रिय के हुंड़क संस्थान होता है श्री रतनलाल बैनाडा जी
उपशांत/क्षपक श्रेणी
ग्यारहवें गुणस्थान वाले का चारित्र, आठवें गुणस्थान के क्षपक श्रेणी वाले से ज्यादा होता है, पर विशुद्धि और निर्जरा कम होती है । श्री रतनलाल
स्वरूपाचरण
स्वरूपाचरण चारित्र का नाम किसी भी पुराने आचार्य ने शास्त्रों में नहीं लिखा है । श्री रतनलाल बैनाडा जी
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