अक्षर भेद
लब्ध-अक्षर – अक्षर को समझने की लब्धि/ योग्यता (कर्म के क्षयोपशम से) इसे ही भाव-इंद्रिय कहा (त.सू. – लब्धयोपयोगो भावेन्द्रियम्)।
लब्ध-अक्षर क्षेत्र → पर्याय ज्ञान से लेकर श्रुत केवली तक।
निर्वृत्ति-अक्षर – रचना (अक्षर की), वर्णों के (आकारादि स्वर/ व्यंजन) के संयोग से नये अक्षर बन जाते हैं।
लब्ध-अक्षर की योग्यता होने पर ही निर्वृत्ति-अक्षर सिखाया जा सकता है।
स्थापना-अक्षर – लिपि के माध्यम से लिखना।
शब्द तो अनादि से, ज्ञान आत्मा के प्रयत्न से।
भोग भूमि में इसकी जरूरत नहीं थी। आदिनाथ भगवान ने सिखाया।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड गाथा- 334)
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने अक्षर भेद का उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है। अक्षर भेद के विषय में भगवान् श्री आदिनाथ ने ही दिया गया था।