अरहंत के मन

संसारी के वचन, मन पूर्वक ही।
ऐसा मन सयोगी के नहीं, इसलिये मन उपचार से कहा क्योंकि वचन की प्रवृत्ति तो हो रही है।
उपचार – निमित्त* और प्रयोजन** को ध्यान में रखकर कहा जाये।
* सयोग केवली के मन का सद्भाव दिखाना।
** द्रव्य मन को बनाये रखने को आत्मा मनोवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है, यही मनोयोग कहलाता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकांड- गाथा 220)

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One Response

  1. मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने अरहंत का उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन में अरहंत के मन की बात को जो हृदय में उतारता है वही कल्याण कर सकता है।

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