आसन्न भव्य
आसन्न भव्य वह…
जो पुण्य से वैसे ही डरता है जैसे पाप से।
वचन/काय से पाप नहीं करता फिर भी अपने को पापी कहता है।
(मन से तो मुनियों से भी बड़े-बड़े पाप हो जाते हैं पर मुनिव्रत खंडित नहीं होता, प्रतिक्रमण कर लेते हैं)
वचन की गलती के लिये उन सबके सामने स्वीकारता हो, जिनके सामने गलती होगयी हो।
काय की गलती के लिये दंड/प्रायश्चित लेता हो।
मुनि श्री सुधासागर जी
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भव्य का तात्पर्य सम्यग्दर्शन आदि प़कट करने की योग्यता होना है, यह तीन प्रकार के होते हैं,आसन्न,दूर और अभव्यता भव्य। आसन्न भव्य का मतलब अल्प काल से मुक्त होता है। अतः मुनि सुधासागर महाराज जी का कथन बिल्कुल सत्य है।