त्याग
आचार्य श्री विद्यासागर जी आहार देने वाले से कुछ त्याग नहीं कराते। एक वकील ने आहार दिया, जो त्याग करने से डरता था। बाद में
चर्चा के दौरान आचार्य श्री ने समझाया, “वाइटॅमिन ‘आर’, यानि रिश्वत, का त्याग सबसे सरल है।”
वकील ने रिश्वत का त्याग कर दिया।
आचार्य श्री ने कहा, “अब किसी का मन नहीं दुखेगा; सो अहिंसाव्रत हो गया। झूठ नहीं बोलना पड़ेगा। चोरी से भी बच गये। पैसा कम होगा, तो कुशील के भाव नहीं आयेंगे। और परिग्रह की सीमा भी हो गयी।”
वकील बोला, “आपने तो अव्रती को व्रती बना दिया।”
आचार्य श्री विद्यासागर जी
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त्याग का मतलब सचेतन और अचेतन समस्त परिग्रह की निवृत्ति को कहते हैं,परस्पर प्रीति के लिए वस्तु कोई लेना भी त्याग है, संयमी जनों के योग्य ज्ञान आदि का दान करना भी त्याग कहलाता है। अतः आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी कथन सत्य है कि वह त्याग न करने वालों से भी आहार लेते हैं, ताकि उसमें त्याग करने की भावना जग जाती है, महाराज किसी को त्याग करने कै लिए नहीं बोलते हैं
अतः उनका उद्देश्य रहता है कि सामने वाले को त्याग की भावना जाग्रत हो जाये । अतः जीवन में त्याग की भावना से ही जीवन का कल्याण हो सकता है।