विवेक
दीक्षा के 4-5 माह तक सोते नहीं थे। एक रात गिर गये; चोट लग गयी।
आचार्य श्री ने कहा, “यह मुनि पद की विराधना है। मुनि को चोट लगा दी! गिरते समय पीछी नहीं लगाई थी, न ? नींद आये तो लेट जाना।
निद्रा पाप-प्रकृति है, पर सोने वाला पापी नहीं। बड़ी निद्रायें भी छठे गुणस्थान तक रहती हैं। न सोने पर क्या अगले दिन साधना में उत्साह रहेगा?”
मुनि श्री सुधासागर जी
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विवेक का तात्पर्य जिस वस्तु के अवलम्वन में अशुभ परिणाम हों,उसको त्याग देना अथवा स्वयं दूर होना, विवेक नाम का प्रायश्चित है।इसी प्रकार दोष युक्त साधु को द़व्य, क्षेत्र आदि से अलग करना भी विवेक है। अतः मुनि महाराज जी ने जो कथन किया है वह पूर्ण सत्य है।