जो “पर” में लीन, वह स्वयं से विलीन हो जाता है ।
जो “स्वयं” में लीन, उसके कर्म विलीन हो जाते हैं ।
आचार्य श्री वसुनंदी जी
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उपरोक्त कथन सत्य है कि पर मैं लीन होने पर स्वयं से विलीन यानी प़थक हो जाता है। अतः स्वयं में लीन होने पर ही अपने कर्मों को विलीन यानी समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। मुनियों द्वारा स्वयं में लीन होने पर अपने कर्मों को विलीन करने में समर्थ हो सकते हैं। स्वयं में लीन होना यानी अपनी आत्मा का हित करना परम आवश्यक है।
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उपरोक्त कथन सत्य है कि पर मैं लीन होने पर स्वयं से विलीन यानी प़थक हो जाता है। अतः स्वयं में लीन होने पर ही अपने कर्मों को विलीन यानी समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। मुनियों द्वारा स्वयं में लीन होने पर अपने कर्मों को विलीन करने में समर्थ हो सकते हैं। स्वयं में लीन होना यानी अपनी आत्मा का हित करना परम आवश्यक है।