कर्म-भार
कावड़िया(जीव), कावड़ी(शरीर) के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थानों(पर्यायों) में बोझा(कर्म-भार) ढोता रहता है।
नये स्थान पर जा दूसरी कावड़ी बना, फिर नया बोझा लाद तीसरे आदि स्थानों(गति) पर चल देता है।
कावड़ियों का तो गंतव्य निश्चित होता है, हमारा प्राय: नहीं, यदि हो जाय तो कर्म-भार कुछ तो कम होगा।
कावड़िया कावड़ी से लगाव नहीं रखता, उसमें रखी मूल्यवान वस्तु (सम्यग्दर्शनादि) को सुरक्षित अगले स्थान तक Convey कर लेता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकांड–गाथा- 202)
8 Responses
मुनि महाराज जी की कर्म भार की परिभाषा में उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है! इसमें मुख्य बात सम्यग्दर्शन आदि की है जो अलग अलग रहता है जो अपने को सुरक्षित कर लेता है एवं कन्वे कर लेते हैं!
‘कावड़िया’ agar jeev hai, to usme aur humame kya difference hai ?
हम भी तो जीव हैं, सो no difference.
To phir कावड़ियों का गंतव्य निश्चित kyun bataya ?
कावड़ियों को तो मालुम रहता ही है न कि उनको गंगाजल लेकर अपने घर वापस जाना है !
‘कावड़िया’ ka shaabdik arth kya hai, please ?
कावड़ी(कंधे पर तराजू जैसी, दोनों तरफ गंगाजल रख कर गंगा से अपने अपने घर लाने के लिए) कंधे* पर उठाने वाले को कावड़िया कहते हैं।
*कावडी को जमीन पर नहीं रख सकते हैं।
Okay.