जैन दर्शन

अकाम निर्जरा –>अपनी इच्छा के बिना इन्द्रिय-विषयों का त्याग करने पर तथा परवश होकर भोग – उपभोग का निरोध होने पर उसे शान्ति से सह लेना, इससे जो कर्मों की निर्जरा होती है उसे अकाम निर्जरा कहते हैं।

अक्षमृक्षणवृत्   – जैसे व्यापारी लोग कीमती सामान से भरी गाड़ी में साधारण सा तेल आदि चिकना पदार्थ डालकर उसे आसानी से ले जाते हैं इसी प्रकार साधू भी रत्नत्रय से युक्त शरीर रूपी गाड़ी में सरस या नीरस आहार डालकर उसे आसानी से मोक्षमार्ग पर ले जाते है, इसलिये साधु की यह आहरचर्या अक्षमृक्षणवृत्ति कहलाती है।

अक्षिप्र अवग्रह –  वस्तु को शनैः शनैः  देर से जान पाना अक्षिप्र अवग्रह है।

अक्षीण-महानस ऋद्धि –  जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के द्वारा आहार ग्रहण कर लेने के उपरान्त उस रसोईघर में बचा शेष आहार अनगिनत लोगों को खिला देने पर भी समाप्त  नहीं होता वह अक्षीण-महानस-ऋद्धि कहलाती है।

अक्षीण-महालय-ऋद्धि –  जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के समीप अल्प स्थान में भी अनगिनत जीव सुखपूर्वक आसानी से बैठ जाते हैं वह अक्षीण-महालय-ऋद्धि कहलाती है।

अकाल-मृत्यु – विषभक्षण आदि किसी बाह्य कारण के मिलने पर समय से पहले ही आयु का क्षीण हो जाना अकाल-मृत्यु है। इसे कदलीघात-मरण भी कहते हैं।

अगाढ़ – जिस प्रकार वृद्ध पुरूष की लाठी हाथ में रहते हुए भी कांपती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि जीव सच्चे देव शास्त्र गुरू की श्रद्धा में स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है और किसी विशेष जिनालय या जिनबिंब के प्रति ‘यह मेरा है’ या ‘यह दूसरे का है’ – ऐसा विचार करता है यह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन का अगाढ़ दोष कहलाता है ।

अगुप्ति-भय –  जिसमें किसी का प्रवेश आसानी से न हो सके ऐसे स्थान में जीव निर्भय होकर रहता है लेकिन जो स्थान खुला हो वहां रहने से जीव को जो भय उत्पन्न होता है उसे अगुप्ति-भय कहते हैं।

अगुरूलघु-गुण –  जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा बना रहे अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुण हो सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके तथा जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में षटगुणी हानि-वृद्धि होती रहे उसे अगुरूलघु-गुण कहते हैं। अगुरूलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर है और मात्र आगम प्रमाण से जानने योग्य है।

अगुरूलघु-नामकर्म –  जिस कर्म के उदय से जीव न तो लोहपिण्ड के समान भारी होकर नीचे गिरता है और न रूई के समान हल्का होकर ऊपर उड़ता है वह अगुरूलघु-नामकर्म कहलाता है।

अगृहीत-मिथ्यात्व –  जो परोपदेश के बिना मात्र मिथ्यात्व कर्म के उदय से सच्चे देव-शास्त्र-गुरू के प्रति अश्रद्धान रूप भाव होता है उसे अगृहीत-मिथ्यात्व कहते हैं।

अग्निकाय – अग्निकायिक जीव के द्वारा छोड़ा गया शरीर अग्निकाय कहलाता है ।

अग्निकायिक –  अग्नि ही जिसका शरीर है उसे अग्निकायिक कहते हैं।

अग्निजीव –   जो जीव अग्निकायिक में उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति में जा रहा है उसे अग्निजीव कहते हैं।

अग्रायणी पूर्व –  जिसमें क्रियावाद आदि की प्रक्रिया और स्व-समय का विषय विवेचित है वह अग्रायणी नाम का दूसरा पूर्व है।

अघातिया कर्म – जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात नहीं करते, पर बाह्य शरीरादि से संबधित हैं वे अघातिया कर्म कहलाते हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कर्म ।

अंग-निमित्तज्ञान –  मनुष्य व तिर्यंचों के अंग और उपांगों को देख कर या छूकर शुभ-अशुभ और सुख-दुख आदि को जान लेना अंग निमित्तज्ञान है।

अंगबाह्य –  महान आचार्यों द्वारा अल्पबृद्धि, अल्पायु और अल्पबल वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए आचारांग आदि बारह अंगों के आधार पर रचे गये संक्षिप्त ग्रंथों को अंगबाह्य कहते हैं।

अंगोपांग नामकर्म –    जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग और उपांगों का भेद होता है, उसे अंगोंपांग नामकर्म कहते हैं। यह तीन प्रकार का है-औदारिक- शरीर-अंगोपांग, वैक्रियिक-शरीर-अंगोपांग आहारक-शरीर-अंगोपांग ।

अचक्षुदर्शन –  चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों और मन के द्वारा वस्तु का ज्ञान होने से पूर्व जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं।

अचित्त –  प्रासुक किए जाने पर जो वस्तु जीव-रहित हो जाती है उसे अचित्त कहते हैं।

अचेलकत्व – वस्त्र आभूषण आदि समस्त परिग्रह का त्याग करके यथाजात नग्न दिगम्बर बालकवत् निर्विकार रूप धारण करना अचेलकत्व कहलाता है। यह साधु का एक मूलगुण है।

अन्तर्मुहूर्त – मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनिट से कम और आवली से अधिक काल को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं ।

अपकर्षण – कर्मों की स्थिति और अनुभाग का घट जाना अपकर्षण कहलाता है ।

अभव्य – जो कभी भी संसार के दुखों से छूटकर मोक्ष सुख प्राप्त नहीं कर सकेंगे ऐसे जीव अभव्य कहलाते हैं ।

आकाश द्रव्य – जो समस्त द्रव्यों को अवकाश अर्थात् स्थान देता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं ।
इसके दो भेद हैं ।
* लोकाकाश
* अलोकाकाश

आवश्यक –
1. साधु के लिये अनिवार्य रूप से जो क्रियाएं करना होती हैं वह आवश्यक कहलाती हैं ।
2. जो इन्द्रिय और मन के वशीभूत नहीं हैं ऐसे साधुजन अवश कहलाते हैं । उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं ।
आवश्यक 6 प्रकार के हैं – सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ।
( श्रावकों के लिये 6 आवश्यक हैं – गुरूपास्ति, देवदर्शन/पूजा, स्वाध्याय, संयम, दान और तप )

ईर्यापथ-आस्रव- उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय और सयोग-केवली भगवान के कषाय का अभाव हो जाने से मात्र योग के द्वारा आए हुये कर्म सूखी दीवार पर पड़ी धूल के समान तुरन्त झड़ जाते हैं बंधते नहीं हैं यह ईर्यापथ-आस्रवकहलाता है ।

ईर्या-समिति – प्राणीयों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार कर जो प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ आगे देखकर सावधानी पूर्वक अपने कार्य के लिये साधु का आना जाना होता है वह ईर्या-समिति है। यह साधु का एक मूलगुण है।

ईश्वर – केवलज्ञान आदि रूप ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले अर्हन्त और सिद्ध परमात्मा ईश्वर कहलाते हैं ।

ईर्ष्या – दूसरों के उत्कर्ष ( बढ़ती ) को न सह सकना ईर्ष्या है ।

उच्चगोत्र कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का लोक पूजित कुलों में जन्म होता है वह उच्चगोत्र कर्म है । गोत्र, कुल, वंश और सन्तान – ये सब एकार्थवाची हैं ।

उच्छ्वास-नामकर्म – सांस लेने को उच्छ्वास और सांस छोड़ने को निःश्वास कहते हैं । जिस कर्म के निमित्त से जीव उच्छ्वास और निःश्वास क्रिया करने में समर्थ होता है उसे उच्छ्वास-नामकर्म कहते हैं ।

उत्कर्षण – कर्मों की स्थिति और अनुभाग में बढ़ती होना उत्कर्षण कहलाता है ।

उत्पाद – द्रव्य का अपनी पूर्व अवस्था को छोड़कर नवीन अवस्था को प्राप्त करना उत्पाद कहलाता है ।

उत्सर्पिणी – जिस काल में जीवों की आयु बल और ऊंचाई आदि का उत्तरोत्तर विकास होता है, उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं । इसके दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा, सुषमा-सुषमा ऐसे छह भेद हैं ।

उदंबर-फल –ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़, पीपल आदि पेड़ों के फल, उदंबर-फल कहलाते हैं । ये त्रस जीवों के उत्पत्ति स्थान हैं इसलिये अभक्ष्य हैं अर्थात् खाने योग्य नहीं हैं ।
( अंजीर भी उदंबर में आता है, उदंबर फलों को तोड़ने पर, प्रायः उड़ते हुये त्रस जीव देखे जाते हैं । )

उदय – द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के अनुरूप कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय कहलाता है ।

उदीरणा – अपक्व अर्थात् नहीं पके हुये कर्मों का पकाना उदीरणा है । दीर्घ काल बाद उदय में आने योग्य कर्म को अपकषर्ण करके उदय में लाकर उसका अनुभव कर लेना यह उदीरणा है ।

ऋजुगति – पूर्व भव के शरीर को छोड़कर आगामी भव में जाते हुये जीव की जो सरल अर्थात् धनुष से छुटे हुए बाण के समान मोड़ा-रहित गति होती है – उसे ऋजुगति कहते हैं । इसका दूसरा नाम ईषुगति भी है ।

ऋद्धि – तपस्या के फलस्वरूप साधू को जो विशेष शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं उन्हे ऋद्धि कहते हैं । ऋद्धियां सात प्रकार की हैं जिनके भेद-प्रभेद चौंसठ हैं ।

ऋषि – ऋद्धि प्राप्त साधुओं को ऋषि कहते हैं जो चार प्रकार के हैं – राजर्षि ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि ।

एलाचार्य – गुरू के पश्चात् जो श्रेष्ठ साधु संघस्थ अन्य साधुओं को मार्गदर्शन देता है उसे अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं ।

ओज आहार – पक्षियों के द्वारा अण्ड़े सेते समय जो उष्मा दी जाती है वह ओज-आहार है ।

ओम् – यह पंच परमेष्ठी वाचक मंत्र है । अर्हन्त का अ, सिद्ध अर्थात् अशरीरि का अ, आचार्य का आ, उपाध्याय का उ, और मुनि का म् । इस तरह पंच परमेष्ठी के प्रथम अक्षरों मिलकर ‘ओम्’ बना है ।

कदलीघात-मरण – विष, वेदना, रक्त-क्षय, शस्त्राघात, संक्लेश, अनीति, आहार व श्वास के रोकने आदि किसी बाह्य कारण के द्वारा जो सहसा आयु का घात होता है उसे कदलीघात-मरण या अकाल-मृत्यु कहते हैं ।

करुणा-दान – दीन-दुःखी जीवों को दयापूर्वक यथायोग्य आहार औषध आदि देना करुणा-दान या दया-दत्ति कहलाता है ।

कर्म – जीव मन-वचन काय के द्वारा प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता है वह सब उसकी क्रिया या कर्म है । कर्म के द्वारा ही जीव परतंत्र होता है और संसार में भटकता है । कर्म तीन प्रकार के हैं – द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म और नो-कर्म ।

कर्म-चेतना – ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं करता हूं’ – यह कर्म-चेतना है । वास्तव में, जीव का स्वभाव मात्र जानना देखना है पर कर्म से युक्त जीव ‘पर’ वस्तुओं में करने-धरने रूप विकल्प करता है यही कर्म-चेतना है ।

कवलाहार – मनुष्य और तिर्यचों के द्वारा कवल अर्थात् ग्रास जो आहार मुख से ग्रहण किया जाता है।
ये चार प्रकार का होता है – खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय ।

कषाय – आत्मा में होने वाली क्रोधादि रूप कलुषता को कषाय कहते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायं हैं ।

केवलज्ञान – जो सकल चराचर जगत् को दर्पण में झलकते प्रतिबिंब की तरह स्पष्ट जानता है वह केवलज्ञान है । यह ज्ञान चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा में उत्पन्न होता है ।

क्षपक- क्षपक-श्रेणी पर चढ़ने वाला जीव चारित्रमोहनीय का अन्तरकरण कर लेने पर क्षपक कहलाता है ।
क्षपक दो प्रकार के हैं – अपूर्वकरण-क्षपक और अनिवृतिकरण-क्षपक ।

क्षपक-श्रेणी – मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ साधु जिस श्रेणी अर्थात् अपूर्वकरण, अनिवृतिकरण, सूक्ष्म-साम्पराय और क्षीण-मोह नामक आठवें, नौवें, दसवें और बारहवें – इन चारों गुणस्थानों रूप सीढ़ी पर आरूढ़ होता है उसे क्षपक-श्रेणी कहते हैं ।

क्षमा-धर्म – क्रोध उत्पन्न कराने वाले कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता उसके यह क्षमाधर्म है । अथवा क्रोध का अभाव होना ही क्षमा है ।

खाद्य – रोटी, लड़्ड़ू, फल, मेवा आदि चबाकर खाने योग्य भोजन सामग्री को खाद्य कहते हैं ।

गणधर – जो तीर्थंकर के पादमूल में समस्त ऋद्धियां प्राप्त करके भगवान की दिव्यध्वनि को धारण करने में समर्थ हैं और लोक-कल्याण के लिए उस वाणी का सार द्वादशांग श्रुत के रूप में जगत को प्रदान करते हैं, ऐसे महामुनिश्वर ‘गणधर’ कहलाते हैं । प्राप्त ऋद्धियों के बल से गणधर आहार, नीहार, निद्रा, आलस्य आदि से सर्वदा मुक्त हैं अतः चौबीस घंटे निरंतर भगवान की वाणी हृदयंगम करने में संलग्न रहते हैं ।
ये तद् भव मोक्षगामी होते हैं ।

घड़ी – 24 मिनिट की एक घड़ी होती है । दो घड़ी का एक मुहूर्त और तीस मुहूर्त का एक दिन-रात होता है ।

घातिया-कर्म – जीव के गुणों का घात करने वाले अर्थात् गुणों को ढ़कने वाले या विकृत करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय और मोहनीय इन चार कर्मों को घातिया-कर्म कहते हैं ।

घ्राण-इन्द्रिय – जिसके द्वारा संसारी जीव गंध का ज्ञान करते हैं उसे घ्राण-इन्द्रिय कहते हैं ।

चक्रवर्ती – आर्य-खण्ड़ आदि छह खण्ड़ों के अधिपति और बत्तीस हजार राजाओं के स्वामी को चक्रवर्ती कहते हैं । ये नौ निधियों और चौदह रत्नों के स्वामी होते हैं ।
 

चक्षु-इन्द्रिय – जिसके द्वारा संसारी जीव पदार्थों को देखता है उसे चक्षु-इन्द्रिय कहते हैं ।
 

चक्षुदर्शन – चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा पदार्थ का ज्ञान होने से पूर्व जो सामान्य प्रतिभास होता है वह चक्षुदर्शन है ।

जन्म – जीव के नवीन शरीर की उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है । जीवों का जन्म तीन प्रकार से होता है  – गर्भ-जन्म, सम्मूर्छन-जन्म और उपपाद-जन्म ।

जन्म-कल्याणक – तीर्थंकर के जन्म का उत्सव जन्मकल्याणक कहलाता है । इस अवसर पर सौधर्म इन्द्र आदि सभी इन्द्र व देवगण भगवान का जन्मोत्सव मनाने बड़ी धुमधाम से पृथ्वी पर आते हैं । कुबेर नगर की अद्भुत शोभा करता है । सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी भगवान की माता को मायामयी निद्रा में सुलाकर बालक भगवान को लाती है और इन्द्र की गोद में देती है । ऐरावत हाथी पर भगवान को लेकर इन्द्र सुमेरू पर्वत पर जाता है । वहां पहुंचकर पांड़ुक शिला पर भगवान को विराजमान करके क्षीर-समुद्र से लाए गए जल के द्वारा एक हजार आठ कलशों से अभिषेक करता है फिर बालक भगवान को दिव्य-वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उत्सवपूर्वक नगर में लौट आता है । इस अवसर पर इन्द्र भक्त्ति-भाव से नृत्य आदि विभिन्न आश्चर्यजनक लीलाएं करता है ।

जय-जिनेन्द्र – जैनों में परस्पर विनय और प्रेमभाव प्रकट करने के लिये जय-जिनेन्द्र शब्द बोला जाता है ।

जिनवाणी – सब जीवों के हित का उपदेश देने वाली श्री अर्हन्त भगवान की वाणी ही जिनवाणी कहलाती है । तत्व का स्वरूप बताने वाली यह जिनवाणी द्वादशांग रूप होती है ।

ज्ञानावरणी कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का ज्ञान आवरित हो जाता है अर्थात् ढ़क जाता है उसे ज्ञानावरणी कर्म कहते हैं ।

मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को आवरित करने वाले अलग-अलग पांच आवरणीय कर्म हैं ।

ठःठः – स्थापित करना; पूजा के समय अपने ह्र्दय में भगवान को स्थापित करने के लिये ठःठः शब्द का प्रयोग होता है ।

णमोकार मंत्र – “णमो अरिहंताणं, णमो  सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो  लोए सव्व साहूणं” – यह णमोकार मंत्र है ।
इसका अर्थ है – अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो । यह अनाधि – निधन मंत्र है । षटखंड़ागम ग्रंथ के मंगलाचरण के रूप में आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि स्वामी ने ईसा की पहली शताब्दी में इसे प्राकृत भाषा में पहली बार लिपिबद्ध किया ।

तत्त्व – जिस वस्तु का जो भाव है वही तत्त्व है । आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है उसका उस रूप होना, यही तत्त्व शब्द का अर्थ है । तत्त्व सात हैं – जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ।

तप – इच्छाओं का निरोध करना तप है । तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है । तप करने का उद्देश्य भी यही है । तप दो प्रकार का है – बाह्य तप और आभ्यन्तर तप ।

मंगल  जो पाप रुपी मल को गलाता है अथवा जो सुख या पुण्य को लाने वाला है वह मंगल कहलाता है। अर्हन्त आदि का गुणगान करना पारलौकिक मंगल है। पीली सरसों, पूर्णकलश आदि लौकिक मंगल है। कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिये, इच्छित फल की प्राप्ति के लिये और पुण्य-वर्धन के लिये ग्रंथ के प्रारंभ में मंगल करने का विधान है। ग्रंथ के प्रारंभ में मंगल दो प्रकार से किया जाता है – निबद्ध मंगल और अनिबद्ध मंगल।

मतिज्ञान  इन्द्रिय व मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा – मतिज्ञान के भेद हैं और मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध, प्रतिभा, बुद्दि, मेधा आदि इसके अपर नाम हैं।

मद – ज्ञान आदि के आश्रय से अपना बडप्पन जताना मद कहलाता है। यह आठ प्रकार का है – ज्ञान-मद, पूजा-मद, कुल-मद, जाति-मद, बल-मद, रुप-मद, तप-मद, और ऋद्धि-मद।

मध्य-लोक – समूचा लोक तीन भागों में विभक्त है। इसके मध्य-भाग को मध्य-लोक कहते हैं। मध्य-लोक एक राजू चौड़ा और एक लाख योजन ऊंचा है। यह चूड़ी के आकार का है। इसमें अनगिनत द्वीप और समुद्र हैं जो परस्पर एक दूसरे से घिरे हुए हैं। मध्यलोक के बीचों बीच एक लाख योजन अर्थात् चालीस करोड मील व्यास वाला प्रथम जम्बूद्वीप स्थित है। जम्बुद्वीप को घेरे हुए दो लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है। फिर घातकीखण्ड द्वीप, कालोदधि समुद्र, पुष्करवर द्वीप और अंत में स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र है। मनुष्य और तिर्यंच जीव इस मध्यलोक में ही पाये जाते हैं।

मन – नाना प्रकार के विकल्प जाल को मन कहते हैं। अथवा गुण दोष का विचार व स्मरण आदि करना, यह मन का कार्य है। मन को अनिन्द्रय या अन्तःकरण भी कहते हैं। मन दो प्रकार का है – द्रव्य-मन, और भाव-मन। हृदय में आठ पांखुरी वाले कमल के आकार की पुदगल संरचना रुप द्रव्य मन है तथा जिसके द्वारा स्मृति, शिक्षा, आलाप आदि का ग्रहण होता है वह भाव-मन होता है।

मन-शुद्धि – आहारदान देते समय ईर्ष्या, क्रोध आदि अशुभ-भावों से दूर रहना और श्रद्धा, विनय आदि शुभ-भाव रखना यह दाता की मन-शुद्धि है।

मनःपर्यय – जो दूसरे के मन का आलम्बन लेकर उस मन में स्थित पदार्थ को स्पष्ट रुप से जान लेता है वह मनःपर्यय ज्ञान कहलाता है। मनःपर्यय ज्ञान ऋद्धिधारी मुनि को ही होता है। यह दो प्रकार का है – ऋजुमति और विपुलमति।

मनोगुप्ति – राग-द्वेष-मोह आदि अशुभ भावों का परिहार करना मनोगुप्ति है।

ममकार – आत्मा से भिन्न शरीर आदि में मेरेपन का भाव या ममत्व भाव होना ममकार है।

मरण – प्राणों का वियोग होना मरण कहलाता है। जीव का मरण अनेक प्रकार से होता है। जीव के आयु आदि प्राणों का जो निरंतर क्षय होता रहता है वह नित्य-मरण या आवीचि-मरण है। विष आदि के निमित्त से अकाल में होने वाले मरण को अपवतर्यायु-मरण या कदलीघात-मरण कहते हैं। पूर्ण आयु भोगकर होने वाला मरण अनपवतर्यायु-मरण कहलाता है। मरण के मुख्य पांच भेद और भी हैं। – पण्डित-पण्डित-मरण, पण्डित-मरण, बाल-पण्डित-मरण, बाल-मरण, और बाल-बाल-मरण।

मरण-भय – ‘मैं जीवित रहूं, कभी मेरा मरण न हो’, इस प्रकार मरण के विषय में जो भय होता है वह मरण-भय है।

मल-परिषह-जय – जीवन पर्यन्त स्नान न करने की प्रतिज्ञा करने वाले निर्ग्रंथ साधु के शरीर पर पसीना और धूल के कारण स्वाभाविक रुप से जो मैल जमा हो जाता है उस संचित मैल से उत्पन्न होने वाली बाधा को समता-भाव से सहन करना मल-परिषह-जय है।

महापुरुष –
1. जो पीड़ित किये जाने पर भी कठोर वचन या अपशब्द नहीं बोलते वह महापुरुष हैं।
2. जैनागम में चौबीस तीर्थंकर, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र, बारह चक्रवर्ती, चौबीस कामदेव, चौदह कुलकर, ग्यारह रुद्र, नौ नारद, और तीर्थंकर के माता-पिता – ये एक सौ उन्हत्तर महापुरुष कहे गये हैं।

महावीर-स्वामी – अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर। ये वैशाली के राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारणी (त्रिशला) के पुत्र थे। इनकी आयु बहत्तर वर्ष की थी और शरीर सात हाथ ऊंचा था। निरंतर बढ़ने वाले गुणों के कारण ये वर्धमान कहलाते थे। संगमदेव ने जब इन पर उपसर्ग किया तब इनकी निर्भयता देखकर इन्हें महावीर कहा। तीव्र तपश्चरण करने से ये लोक में अतिवीर कहलाये। संजय-विजय नाम के ऋद्धिधारी मुनियों को इनके दर्शन से समाधान मिला इसलिये इन्हें सन्मति नाम दिया गया। शरीर का अनन्त बल देखकर इन्हें वीर कहा गया। तीस वर्ष की अवस्था में इन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष की तपस्या के उपरांत इन्हें केवलज्ञान हुआ। गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक इनकी दिव्यध्वनि नहीं हुई। इन्द्रभूति गौतम के आने पर और शिष्यत्व स्वीकार करने पर दिव्यध्वनि प्रारंभ हुई। इनके संघ में इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधर, चौदह हजार मुनि, छतीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक व तीन लाख श्राविकायें थीं। इन्होंने पावापुर से मोक्ष प्राप्त किया।

महाव्रत – हिंसादि पांच पापों का मन, वचन, काय से जीवन-पर्यन्त के लिये त्याग करना महाव्रत है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत हैं।

माध्यस्थ-भाव – रागद्वेष पूर्वक पक्षपात नहीं करना माध्यस्थ-भाव है। माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, वीतरागता ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं।

मान –
1. दुसरे के प्रति नमने की वृत्ति न होना मान है। अथवा दूसरों के प्रति तिरस्कार रुप भाव होना मान कहलाता है।
2. मान का अर्थ तौल या माप भी है।

मानस-आहार – देवों को आहार की इच्छा होते ही कण्ठ से अमृत झरने लगता है। यह मानस-आहार कहलाता है।

मानसिक-विनय – धर्म-कार्य में मन लगाना तथा पाप कार्य के विचार से मन को बचाना मानसिक-विनय है। अथवा पूज्य पुरुषों के प्रति आदर-भाव रखना मानसिक-विनय है।

मानस्तम्भ – तीर्थंकरों के समवसरण में प्रवेश करने से पहले प्रत्येक दिशा में जो तीर्थंकर के शरीर की ऊंचाई से बारह गुनी ऊंची स्तम्भ के आकार की सुंदर रचना होती है उसे मानस्तम्भ कहते हैं। चूंकि दूर से ही इसके दर्शन मात्र से मिथ्यादृष्टि जीव अभिमान से रहित हो जाते हैं अतः इसका मानस्तम्भ नाम सार्थक है। सभी मानस्तम्भ मूल में वज्रद्वारों से युक्त होते हैं, मध्यभाग में वृत्ताकार होते हैं और ऊपर चारों दिशाओं में चमर, घण्टा, आदि से विभूषित एक-एक जिन-प्रतिमा से युक्त होते हैं। अकृत्रिम चैत्यालयों में भी इसी तरह मानस्तम्भ की रचना होती है।

मानुषोत्तर पर्वत – मध्यलोक में पुष्करवर द्वीप के बीचों बीच चूड़ी के समान गोल आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। यह अनादि-अनिधन है। इस पर्वत के बाहर मनुष्यों का गमन नहीं होता।

माया – माया का अर्थ छल, कपट या कुटिलता है। दूसरे को ठगने के लिये जो छल, कपट आदि किये जाते हैं वह माया है।

यति – जो साधु उपशम या क्षपक श्रेणी में विराजमान हैं उन्हें यति कहा जाता है। अथवा जो साधु इन्द्रिय-जय के द्वारा अपने शुद्धात्म स्वरुप में प्रयत्नशील होते हैं उन्हें यति कहते हैं।

यथाख्यात-चारित्र – समस्त मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो स्वभाविक वीतराग चारित्र उत्पन्न होता है, उसे यथाख्यात-चारित्र कहते हैं।

यथाजात – अंतरंग में वीतरागता और बाह्य में समस्त परिग्रह से बालकवत् निर्विकार नग्न रुप को यथाजात कहते हैं।

यंत्र – कुछ विशिष्ट प्रकार के अक्षर, शब्द या मंत्र जो विभिन्न रेखाकृतियां बनाकर उसमें चित्रित किए जाते हैं वे यंत्र कहलाते हैं। पूजा, प्रतिष्ठा, विधान आदि में इनका उपयोग विनयपूर्वक किया जाता है।

यम – भोग-उपभोग की वस्तुओं का जीवन-पर्यन्त के लिये त्याग करना यम कहलाता है।

यशःकीर्ति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से पवित्र गुणों की ख्याति या प्रसिद्धि होती है उसे यशःकीर्ति-नामकर्म कहते हैं।

योग – मन, वचन, और काय के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन को योग कहते हैं। अथवा मन, वचन, और काय की प्रवृति के लिये जीव का प्रयत्न विशेष ही योग कहलाता है।
योग तीन प्रकार का है – मनो-योग, वचन-योग, और काय-योग। ये तीनों योग शुभ और अशुभ दोनौं रुप होते हैं।

योजन – चार कोस का एक योजन होता है। दो हजार कोस का एक महायोजन होता है। योजन के प्रयोग जीवों के शरीर, नगर, मंदिर आदि को मापने में होता है तथा महायोजन के द्वारा पर्वत, द्वीप, समुद्र आदि को मापते हैं।

योनि – जिसमें जीव जाकर उत्पन्न होता है उसे योनि कहते हैं। सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, विवृत, आदि के भेद से योनि अनेक प्रकार की हैं। एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय आदि जाति के भेद से योनि के चौरासी लाख भेद हैं।

रति – जिस कर्म के उदय से जीव इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते हैं। अथवा मनोहर वस्तुओं के प्रति अत्यंत प्रीति होना रति है।

रत्नत्रय – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र – इन तीन गुणों को रत्नत्रय कहते हैं।

रसना – जिसके द्वारा स्वाद लिया जाता है अथवा जो स्वाद को ग्रहण करती है वह रसना या जिह्या इन्द्रिय है।

रस- परित्याग – भोजन में दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छ्ह रसों का या इनमें से किसी एक-दो रसों का त्याग करना रस-परित्याग नाम का तप है।

राग – इष्ट पदार्थों में प्रीति या हर्ष रुप परिणाम होना राग है। राग दो प्रकार का है – प्रशस्तराग और अप्रशस्तराग।

राजर्षि – जो साधु विक्रिया-ऋद्धि और अक्षीण-ऋद्धि के धारक होते हैं वे राजर्षि कहलाते हैं।

राजसिक-दान – जो दान केवल अपने यश और ख्याति के लिये किया गया हो, जो थोड़े समय के लिये सुंदर और चकित करने वाला हो तथा दूसरे के द्वारा दिलाया गया हो वह राजसिक-दान है।

रात्रि-भुक्ति-त्याग-प्रतिमा – सचित्त त्याग नामक पांचवीं प्रतिमा धारण करने के उपरांत जीवन पर्यन्त के लिये मन, वचन, काय से रात्रि में अन्न, जल आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देना ( दूसरों को भी नहीं खिलाना और ना ही खिलवाना )यह श्रावक की रात्रि-भुक्ति-त्याग नामक छठवीं प्रतिमा है।

रुपस्थ-ध्यान – समवसरण के मध्य में स्थित अनन्त चतुष्टय से समन्वित अर्हन्त भगवान का जो ध्यान किया जाता है उसे रुपस्थ-ध्यान कहते हैं।

रुपातीत-ध्यान – रुपस्थ-ध्यान में निष्णात योगी के द्वारा जो सिद्ध परमेष्ठी का या शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है वह रुपातीत ध्यान है।

रौद्रध्यान – रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है। क्रूर आशय से किया गया कर्म रौद्र है। हिंसा करने में आनन्द मानना, झूठ बोलने में आनन्द मानना, चोरी करने और परिग्रह जोड़ने में आनन्द मानना रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान चार प्रकार का है – हिंसानंदि, मृषानंदि, चौर्यानंदि और परिग्रहानंदि।

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