प्रेम / रागादि
प्रेम जीव से, गुरु गुण देखकर।
रागादि (द्वेष/ मोह) शरीर से होता है, क्षणिक।
प्रेम की अधिकता होने पर द्रव्य-दृष्टि बनायें।
द्वेष की अधिकता होने पर पर्याय दृष्टि।
प्रेम तथा रागादि में भेद-विज्ञान लगाना होगा।
राग तथा द्वेष में माध्यस्थ भाव रखें।
प्रेम तो सांप से भी रखना है, हाँ ! ज़हर/ अवगुणों में माध्यस्थ भाव रखें।
भेद-विज्ञान लगायेंगे तब एक ही में चारों (प्रेम, रागादि) घटित हो जायेंगे।
मुनि श्री मंगल सागर जी
One Response
प़ेम एवं रागादि का उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन के कल्याण के लिए रागादि से बचना परम आवश्यक है। प़ेम सोच समझकर करना परम आवश्यक है।