समता तो गृहस्थ तथा साधु दोनों धारण करते हैं;
श्रावक सभ्यता के नाते/ सामाजिकता/ स्वार्थपूर्ति के लिये, बाह्य समता रखता है,
साधु खुद के नाते/ अंतरंग समता रखते हैं ।
श्रावक स्थान देखकर अपने पर नियंत्रण रखते हैं,
साधु हर समय चारित्रित समता रखते हैं ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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समता का तात्पर्य शत्रु मित्र में सुख दुःख में लाभ अलाभ और जय पराजय में हर्ष विवाद नहीं करना या साम्य भाव रखना होता है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि समता तो ग़हस्थ तथा साधु दोनों धारण करते हैं। श्रावक सभ्यता के नाते, सामाजिकता या स्वार्थ पूर्ति के लिए,बाह्य समता रखता है, लेकिन साधु अंतरंग समता रखते हैं। श्रावक स्थान देखकर अपने पर नियंत्रण कर लेते हैं लेकिन साधु हर समय चारित्रित समता रखते हैं।
अतः जीवन में श्रावक को समता का भाव हर स्थिति में रखना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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समता का तात्पर्य शत्रु मित्र में सुख दुःख में लाभ अलाभ और जय पराजय में हर्ष विवाद नहीं करना या साम्य भाव रखना होता है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि समता तो ग़हस्थ तथा साधु दोनों धारण करते हैं। श्रावक सभ्यता के नाते, सामाजिकता या स्वार्थ पूर्ति के लिए,बाह्य समता रखता है, लेकिन साधु अंतरंग समता रखते हैं। श्रावक स्थान देखकर अपने पर नियंत्रण कर लेते हैं लेकिन साधु हर समय चारित्रित समता रखते हैं।
अतः जीवन में श्रावक को समता का भाव हर स्थिति में रखना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।