Month: February 2024
कर्म / नोकर्म
नोकर्म शरीरादि। “नो” = ईषत्/ अल्प/ नहीं भी/ विपरीत (कर्म से क्योंकि कर्म तो आत्मा का घात करते हैं, नोकर्म नहीं या ईषत सुख/दु:ख देते
जिज्ञासा / समाधि
जिज्ञासा अपूर्णता से पैदा होती है या महत्वाकांक्षा बहुत हो जाने पर। जिज्ञासायें समाप्त होने पर/ संतुष्ट होना ही समाधि है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर
मोह
द्रव्य मोह – नामकर्म के निमित्त से। भाव मोह – नामकर्म के भोगने से। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
निंदा
कड़वी निबोली को चींटी भी नहीं काटतीं, मीठी होने पर नोचने/ खसोटने लगती हैं। यदि आपको कोई सता रहा है/ निंदा कर रहा है तो
समयप्रबद्ध
अनंत परमाणुओं की एक वर्गणा, अनंत वर्गणाओं का एक समयप्रबद्ध। यह सिद्धों का अनंतवाँ भाग तथा अभव्यों से अनंतगुणा होता है। प्रति समय, समयप्रबद्ध आत्मा
प्यार किससे ?
जो जिंदा को प्यार करते हैं, वही जाने के बाद उनसे प्यार कर सकते हैं जैसे भगवान को उनके जाने के बाद भी प्यार करते
मानस्तम्भ
मन्दिरों में मानस्तम्भ जरूरी नहीं। यदि हो तो मन्दिर के मुख्य द्वार से मानस्तम्भ की ऊँचाई की 1½ गुनी दूरी पर हो ताकि भगवान की
कटु-शब्द
यदि कोई कटु-शब्द कहे तो चिंतन करें → 1. ये शब्द मेरे ही तो हैं (कभी मैंने कहे होंगे) 2. कहने वाला मेरा ही कोई
परस्पर
“परस्परोपग्रहो जीवानाम्” इस सूत्र में प्राय: “उपग्रह” का अर्थ “उपकार” ही लिया जाता है पर इसमें “अपकार” भी ग्रहण करना चाहिये। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर
मनस्वी / यशस्वी
मनस्वी (मन का स्वामी) ही तपस्वी बन सकता है। तपस्वी, तेजस्वी और तेजस्वी ही यशस्वी बनता है। मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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