Month: September 2024
शरीर परिग्रह
ऊपर-ऊपर के देवों में शरीर तथा परिग्रह हीन होते जाते है (तत्त्वार्थ सूत्र – 4/21)। उसमें परिग्रह से पहले शरीर लिया। कारण ? 1. शरीर
बोध वाक्य
बाहर एकता रखनी है, अन्दर एकत्व भाव। सोते समय भी सावधानी बरतते हैं/ तीनों मौसमों में भी, फ़िर भावों में क्यों नहीं ? अगर सावधानी
क्षमावाणी
अगर पर्युषण पर्व पर इस कविता को यथार्थ में समझ लिया जाये तो ये पर्व मनाना निसंदेह सफल हो जायेगा:— मैं रूठा, तुम भी रूठ
पाप
पाप तो बुरा ही है → निश्चय से सापेक्षत: भी बुरा है → व्यवहार से चिंतन
उत्तम ब्रह्मचर्य
ब्रह्म में लीन होना ब्रह्मचर्य है। इससे जीवन में निराकुलता आती है और दृष्टि अंतर्मुखी होती है। दुनियाँ से विरक्त हो जाना ही ब्रह्मचर्य है।
द्रव्य
द्रव्य गुणों को हमेशा बनाये रखता है, इसलिए नित्य है। साधारण/ सामान्य गुण = अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व* आदि। विशेष गुण = जैसे जीव में
उत्तम आकिंचन्य
मैं और मेरापन/ पुराने विचारों को छोड़ना भी आकिंचन्य/ अपरिग्रह है। शक्ति दो प्रकार की होती हैं… एक स्मरण-शक्ति जैसे पुराने विचार, दूसरी दर्शन-शक्ति यानी
अजीव + काया
अजीव कायवान 4 द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल) बताये। लेकिन पहले 3 को कायवान उपचार से कहा क्योंकि वे बहुप्रदेशी हैं। सही में काया तो
उत्तम त्याग
संपूर्ण वस्तु/ वस्तुओं को छोड़ना त्याग है। दान और त्याग में अंतर… दान पराधीन है, इसमें परिग्रह रह जाता है, विकल्प होते हैं, अच्छी और
वस्तु-स्वभाव: धर्म:
वस्तु का स्वभाव ही धर्म है*। पर स्वभाव तो बदलता रहता है तो क्या धर्म भी बदलता रहता है ? धर्म 2 प्रकार का –>
Recent Comments