समता / भाग्य
श्री दुग्गल जी दिल्ली में बैंक के वरिष्ठ अधिकारी थे।
उनको कैंसर हो गया और बम्बई इलाज के लिये आते थे।
अस्पताल वालों ने विदेश से कोई ज़रूरी इंजेक्शन मंगाया और उसके लिये दुग्गल जी को दिल्ली से बुलवाया। जब वे मुम्बई पहुंचे तो वह इंजेक्शन बहुत ढ़ूँढ़ने पर भी न मिला। कई दिन इंतज़ार करते रहे और तबियत खराब होती गई तब उन्होंने डॉ पी एन जैन को फोन किया । इस पर डॉ जैन दुर्व्यवस्था से बहुत दुःखी हुये। तब दुग्गल जी ने कहा – दुःखी न हों, ये शेर सुनें –
“ख़ुदा की हुकूमत में, हरसू अमल है,
तफ़्कीर में जान अपनी क्यों खोता।
हुआ जो है अकबर, समझ तू ज़रूरी,
ग़र ज़रूरी न होता, तो हरगिज़ न होता।”
(तफ़्कीर = फिक्र )
शेर सुनाने के अगले दिन श्री दुग्गल जी का निधन हो गया ।
क्या ऐसी मुसीवतों में हम समता भाव रखते हैं ?