पर्याप्त
संसार में प्राप्त को पर्याप्त मानने को कहा, तो परमार्थ में ?
दोनों में एक ही सिद्धांत… अपनी-अपनी क्षमतानुसार, आकुलता रहित, पूर्ण पुरुषार्थ।
दोनों ही क्षेत्र में नकल/ प्रतिस्पर्धा नहीं, हाँ ! किसी को आदर्श बनाने में बुराई नहीं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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मुनि श्री प़माणसागर महाराज जी ने पर्याप्त को परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन का कल्याण करने के लिए प़ाप्त को पर्याप्त मनना परम आवश्यक है।