Category: 2015
क्षयोपशम सम्यग्दर्शन
क्षयोपशम से मिथ्यात्व का क्षय कैसे ? मिथ्यात्व संक्रमण करके सम्यक्-मिथ्यात्व, और सम्यक्-मिथ्यात्व, सम्यक्-प्रकृति में संक्रमित हो जाता है । मुनि श्री सुधासागर जी
रत्नत्रय से बंध तथा मोक्ष
समयसार – जब जघन्य भाव से परिणमन करता है/राग सहित होता है तब इंद्रादि/ तीर्थंकर आदि का बंध करता है । उत्कृष्ट भाव/राग रहित मोक्ष
अयोग केवली के कर्म क्षय
85 कर्म प्रकृतियाँ, 14 गुणस्थान में बची रहती हैं, इनमें कुछ का उदय है, कुछ का नहीं । तो बिना उदय के क्षय कैसे ?
चारित्र
इसकी शुरुआत – 5 गुणस्थान से (चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग की अपेक्षा ) – जब चारित्र के दो भेद किये (देश/सकल) । तीन भेद (उपशम, क्षायिक,
प्रवृति में अप्रमत्त
प्रवृति में भी अप्रमत्त अवस्था (7 गुणस्थान) मानना होगा । वरना एक मुहुर्त तक विहार करने वाले मुनि (तीर्थंकर भी) को 6 से नीचे उतरना
वस्तु अनेक धर्मात्मक
पर्याय अनंत होती हैं, इसीलिये वस्तु को अनेक धर्मात्मक कहा है । अपने स्वभाव के अनुसार सत्, पर की अपेक्षा असत् है । एक ज्ञान
सातवाँ गुणस्थान
कहते हैं – मुनि आहार करते हुए भी आहार नहीं करते, सो कैसे ? सातवें गुणस्थान में स्थित मुनिराज आहार करेंगे या अपनी और दूसरे
देवता/सम्यग्दर्शन
द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन के साथ पहले स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिध्दी तक जाते हैं । अव्रती स.द्रष्टी- 1 से 12, अणुव्रती – 1 से 16, महाव्रती –
मोक्ष/नय
मोक्ष तो व्यवहार नय से ही मिलता है (1 से 12 गुणस्थान तक व्यवहार नय ही है ) । निश्चय नय पर तो दृष्टि रहती
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