Category: 2011

भय

भय के बिना प्रीति नहीं होती । आठवें गुणस्थान के आगे प्रीति/भक्ति की जरूरत नहीं होती, इसीलिये शायद भय आठवें गुणस्थान तक ही रहता है।

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लेश्या

मनुष्य/तिर्यंचों के छहों लेश्यायें होतीं हैं, एकेंद्रिय/विकलेन्द्रिय के तीन अशुभ, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के नीचे की चार, संज्ञी अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि तथा सासादन स.दृष्टि के तीन अशुभ

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उद्वेलना-काल

स.प्रकृति के उद्वेलना काल से स.मिथ्यात्व का काल विशेष अधिक होता है । दर्शनमोहनी की सिर्फ दो प्रकृतियों; मिथ्यात्व और स. मिथ्यात्व की सत्ता असंख्यात

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परमावधि/सर्वावधि

सर्वावधि की अपेक्षा परमावधि में कथंचित देशावधिपना है। वैसे परमावधि तथा सर्वावधि चरमशरीरी संयतों के ही होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/195

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कर्मोदय

कर्मोदय के समय शुरू-शुरू में ’’प्रदेश’’ बहुत उदय में आते हैं, और ’’अनुभाग’’ बहुत कम ।

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सासादन वाले के साथ सम्यक्त्व ?

मिथ्यात्व कर्म के उदय के अभाव में, विपरीतामिनिवेश( विपरीत अभिप्राय) वहाँ नहीं पाया जाता । इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि न कहकर, सासादन-सम्यक्त्वी कहा है। जिज्ञासा समाधान-116

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गोत्र-संक्रमण

मनुष्य, देव, नारकी के गोत्र-संक्रमण नहीं होता। तिर्यन्च यदि पांचवें गुणस्थान में हो तो किसी किसी के होता है। श्री धवला जी के अनुसार – 

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आश्रव/उदय

आश्रव पराधीन है, आपके हाथों में है, उदय स्वतंत्र है, आपके हाथ में नहीं है । आश्रव होगा तो बंध होगा ही, उदय होगा तो

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क्षायिक-सम्यग्दर्शन

पहले 3 करण ( अधःप्रवृति-करण, अपूर्व-करण, अनिवृति-करण ) फिर अनंतानुबंधी की विसंयोजना, 12 कषायों तथा 9 नोकषायों में से किन्हीं 5 में ( रति/अरति, हास्य/शोक,

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मंगल आशीष

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