Category: 2013
मति – श्रुतावधयो विपर्ययश्च
मति, श्रुत और अवधिज्ञान सच्चे भी हैं और मिथ्या भी । आचार्य श्री कहते हैं – ये तीनों मिश्र भी होते हैं । (आचार्य श्री
अप्रमत्त गुणस्थान
स्वस्थान अप्रमत्त – प्रमाद रहित, कषायों का अनुपशामक व अक्षपक होते हुये भी ध्यान में लीन । सातिशय अप्रमत्त – श्रेणी चढ़ने के सम्मुख खड़ा
क्षायिक भाव
चार अनुजीवी (घातिया) कर्म प्रकृतियों के क्षय से 9 लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । ( अंतराय से 1-5 – दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य तथा
क्षयोपशम
देशघाती कर्मप्रकृतियों का ही क्षयोपशम होता है, सर्वघाती का नहीं । पाठशाला – तत्वार्थसूत्र – 2/5
संवर/निर्जरा
पहले से ग्यारहवें गुणस्थान तक संवर तो समान रह सकता है पर निर्जरा बढ़ती रहती है । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
गुणस्थान अवरोहण
ग्यारहवें से छ्ठवें गुणस्थान तक के जीव मरण के समय सीधे चौथे गुणस्थान में आकर स्वर्ग जाते हैं । श्री जैनेन्द्रसिद्धांत कोश – 1/190
मतिज्ञान
इसको प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष परोक्ष क्यों कहा है ? जितने अंग को प्रत्यक्ष जाना सो “प्रत्यक्ष”, शेष अंग अप्रत्यक्ष, इंद्रियावलम्बी होने से “परोक्ष” । श्री जैनेन्द्रसिद्धांत कोश
द्र्व्यों में उत्पाद-व्यय
सभी द्र्व्यों में अगुरुलघु गुण की अपेक्षा स्वनिमित्तक उत्पाद-व्यय होता है । पर प्रत्यय की अपेक्षा भी धर्म आदि द्र्व्यों में होता है (जीव पुदगलों
प्रमत्त की अवधि
इस गुणस्थान में यदि एक मुहूर्त रह लिया तो नियम से मिथ्यात्व में चला जायेगा । श्री जैनेन्द्रसिद्धांत कोश – 4/130
विग्रहगति में दर्शन
इसमें तीन दर्शन होते हैं (कार्मण काय योग में चारों), पर चक्षु दर्शन का उपयोग नहीं होता, सिर्फ सत्ता में रहता है/क्षयोपशम होता है ।
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