Tag: मुनि श्री प्रमाणसागर जी
अनुबंध
पापानुबंधी/पुण्यानुबंधी का निर्णय कर्मबंध के समय ही तय हो जाता है – कि उदय के समय यह पाप का अनुबंध करेगा या पुण्य का ।
अभाव
अभाव दु:खदायी नहीं, अभाव की अनुभूति दु:ख देती है । सबसे ज्यादा अभाव में तो साधू रहते हैं, पर ना उनका अभाव उन्हें दु:खी करता
आशीर्वाद
“आ” से आनंद, “श” से शिव/मुक्ति । “व” से विशुद्ध, “द” से दया ।। आशीर्वाद से नकारात्मता कम होती है, सकारात्मकता और आत्मविश्वास बढ़ता है
भावना
एक राज्य में राजा अल्पायु ही होते थे । राजा के पूछने पर गुरु ने कहा कि जब वो हरा पेड़ सूख जायेगा तब बताऊंगा ।
समाज सेवा
समाजसेवा क्यों करें ? समाज की वज़ह से ही हम असमाजिक तत्व बनने से बचे हुये हैं, इसीलिये समाज की सेवा करें । मुनि श्री
साधना
संसार में मन की बात ज़ुबान पर ना आने देना, ज़ुबान की बात/शरीर पर ना आने देना, तथा धर्म में मन से वचन, वचन से
गुरु और साधुता
सच्चा गुरु मिल जाये तो साधुता निभाना आसान हो जाता है । पर सच्चे गुरु की थाह लेना वैसा ही है जैसे कोई रस्सी में
ज्ञान
छोटा सा जुगनू पूरे आकाश के अंधकार पर भारी पड़ जाता है । हमारे हृदय का अज्ञान भी ज्ञान के दीपक से समाप्त हो सकता
संस्कार
बच्चों को याद करायें – 1. पाप से भय 2. संवेदनशीलता 3. धर्म कुल का गौरव मुनि श्री प्रमाणसागर जी
देवालय
जिस देह में समृद्ध आत्मा हो, उस देह को देवालय कहा है, दिवालिया देह को नहीं । आत्मा का दर्शन करना है तो दर्पण पर
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