Tag: पाप
पुण्य के उदय में पाप भाव
पुण्य के उदय में पाप भाव कैसे ? मिथ्यात्व के साथ पूर्व में पुण्य कमाया हुआ, पाप कराने का भाव कराता है ।
पाप क्रिया में निर्जरा
पाप क्रिया करते समय पुण्य की निर्जरा होती है, उसके बिना पाप क्रिया हो ही नहीं सकती । पाप के उदय में पुण्य-क्रिया की जा
पाप क्रियाओं के लिये धर्म
पाप क्रियाओं के लिये धर्म करने से सफलता तो मिलेगी पर उसका अंत-फल सही नहीं आयेगा, जैसे रावण का अंत-फल । मुनि श्री सुधासागर जी
पाप / अपराध
पाप – आंतरिक, अधर्म तथा भावनाओं से, अपराध – प्रकट, क्षेत्र और काल से परिभाषा बदलती रहती है, इसका फल बाद में निर्धारित किया जाता
पाप / पुण्य
पाप और पाप क्रिया को छोड़ना, व्रत है ; पुण्य और पुण्य क्रिया को छोड़ना वैराग्य । (मंजू)
कमाने में पाप/पुण्य
पुराने पुण्य को पाप में इन्वेस्ट करने पर पैसा कमाया जाता है । तो कम से कम, पाप से कमाया हुए पैसे को पुण्य में
बड़ा पाप/पुण्य
पाप से भी बड़ा पाप है – “पाप को स्वीकार ना करना” । स्वीकार करते ही वह प्रायश्चित बन जाता है, तप कहलाता है ।
पाप
पाप परिस्थिति नहीं कराती, मन:स्थिति कराती है । जिस परिस्थिति में रागी पाप करता है, उसी परिस्थिति में वैरागी पुण्य करता है । क्षु. श्री
पुण्य / पाप
“पुण्य” छप्पर फाड़ कर देता है… “पाप” थप्पड़ मार कर लेता है ! (मंजु)
पुण्य/पाप
पुण्य हो तो तिनके का सहारा भी तार देता है , पापोदय में जहाज़ भी डुबा देता है ।
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