हमारा शरीर इतना अशुचि है कि इसके सम्पर्क में सुगंधित वस्तु भी दुर्गंधि का निमित्त (थोड़े समय में ही) बन जाती है ।
जबकि भगवान के शरीर से सम्पर्क पाकर दुर्गंधित वस्तु भी सुगंधित हो जाती है ।
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अशुचि अनुप़ेक्षा का मतलब शरीर अपवित्र है। स्नान या अन्य सुगंधित पदार्थों से भी अशुचि अर्थात मलिनता को दूर नहीं कर सकते हैं। लेकिन रत्नत्रय की भावना के द्वारा शरीर से भिन्न अपनी आत्मा की शुचिता प़कट हो सकती है।
उपरोक्त कथन पूर्ण सत्य है कि भगवान् के शरीर से सम्पर्क पाकर दुर्गन्धित वस्तु भी सुगंधित हो जाती है।
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अशुचि अनुप़ेक्षा का मतलब शरीर अपवित्र है। स्नान या अन्य सुगंधित पदार्थों से भी अशुचि अर्थात मलिनता को दूर नहीं कर सकते हैं। लेकिन रत्नत्रय की भावना के द्वारा शरीर से भिन्न अपनी आत्मा की शुचिता प़कट हो सकती है।
उपरोक्त कथन पूर्ण सत्य है कि भगवान् के शरीर से सम्पर्क पाकर दुर्गन्धित वस्तु भी सुगंधित हो जाती है।