निर्जरा दो तरह से –
1. भोग से (भोगकर) – धीरे धीरे
2. योग से – तेजी से ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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4 Responses
निर्जरा- – जिस प्रकार आम आदि फल पककर वृक्ष से प़थक हों जाता है,उसी प्रकार आत्मा को भला बुरा फल देकर कर्मों का झड़ जाना निर्जरा कहते हैं।
भोग- – जो वस्तु एक ही बार भोगने में आती है उसे कहते हैं जैसे अन्न,पान, गंध माला आदि।
योग- – मन, वचन और काय के द्वारा होने वाले आत्म प़देशो के परिस्पन्दन को कहते हैं अथवा मन वचन काय की प़वृति के लिए जीव का प्रयत्न विशेष योग कहलाता है। अतः उक्त कथन सत्य है कि निर्जरा दो तरह से होती है जिसमें भोग को भोगकर धीरे धीरे छोड़ना पड़ता है लेकिन योग से तेज़ी से निर्जरा होती है।
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निर्जरा- – जिस प्रकार आम आदि फल पककर वृक्ष से प़थक हों जाता है,उसी प्रकार आत्मा को भला बुरा फल देकर कर्मों का झड़ जाना निर्जरा कहते हैं।
भोग- – जो वस्तु एक ही बार भोगने में आती है उसे कहते हैं जैसे अन्न,पान, गंध माला आदि।
योग- – मन, वचन और काय के द्वारा होने वाले आत्म प़देशो के परिस्पन्दन को कहते हैं अथवा मन वचन काय की प़वृति के लिए जीव का प्रयत्न विशेष योग कहलाता है। अतः उक्त कथन सत्य है कि निर्जरा दो तरह से होती है जिसमें भोग को भोगकर धीरे धीरे छोड़ना पड़ता है लेकिन योग से तेज़ी से निर्जरा होती है।
“भोग से” “Nirjara” kaise hoti hai?
भोग पुण्य कर्म से,
भोग भोग लिए तो कर्म निर्जरित होंगे न !
Okay.