भव्य
हम कौन से भव्य ?
क्या हम भगवानों के समवसरण में गये थे ?
जरूर गये थे, वरना आज धर्म के संस्कार नहीं आते ।
तो अब तक संसार में क्यों रुके रहे ?
क्योंकि तब हम दूर-भव्य थे ।
आज ?
निकट-भव्य ।
कैसे ?
वरना पंचम-काल में भगवान की वाणी, गुरुओं के मुख से सुनने के भाव ही नहीं बनते ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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भव्य जीव का मतलब सम्यग्दर्शन के भाव आदि प़कट होने की योग्यता होती है। जो अल्प काल में मुक्त होंगे वह आसन्न भव्य,जो बहुत काल में मुक्त होंगे वह दूर भव्य होंगे,जो मुक्त होने की योग्यता होने पर भी मुक्त नहीं होंगे वह दूर-दूर भव्य हैं। अतः मुनि श्री ने उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है।