Category: वचनामृत – मुनि श्री क्षमासागर

बाह्य/अन्तरंग योग

अच्छे कर्म यदि बुरे भाव से किये जायें तो परिणाम शून्य। बुरे कर्म अच्छे भाव से, तो भी शून्य। गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

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शरीर / आत्मा

शरीर देवालय है, आत्मा देव। देव की पूजा/ साधना के लिये देवालय होता है। पर प्रीति तो देव से ही, देवालय से न प्रीति ना

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सल्लेखना

सल्लेखना के आखिरी 4 साल में शरीर को कष्ट सहिष्णु बनाना होता है, इससे सहन शक्ति बढ़ती है/ शरीर आरामतलब नहीं बनता है। फिर रसों

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साधु बनने का उपदेश

पहले साधु बनने का उपदेश क्यों दिया जाता है ? पहले मंहगा/ कीमती माल ग्राहक को दिखाया जाता है, यदि चल गया तो बड़ा फायदा

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बुरा

बुराई करने वाला बुरा नहीं होता है, (वो तो बस) बुराई करने से बुरा हो जाता(सिर्फ बुराई करते समय)। गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

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अंत समय में

संथारा- (श्वेताम्बर परंपरा) = आखिरी शयन, Jumping Board – इस शरीर से दूसरे शरीर के लिये। सल्लेखना – (दिगम्बरी परंपरा) – भीतर कषाय (क्रोधादि) को

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पाप पुण्य और अगला जीवन

इस जीवन में किसी ने लगातार पाप किये पर मरते समय/ अगले जीवन के निर्णय का समय आने पर भाव बहुत अच्छे हो गये/पश्चातापादि कर

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वैराग्य / संसार

पुत्र के वैराग्य भावों से डरकर पिता ने उसे सुरा-सुंदरियों से घिरवा दिया। बेटे ने सन्यास न लेकर संसार ही चुना। 1. उसके जीवन का

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घमंड / वैभव

आचार्य श्री विद्यानंद जी के प्रवचनों को सुनने एक संभ्रांत महिला रोजाना आती थीं पर चटाई पर न बैठकर जमीन पर बैठतीं थीं। कारण :

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मंगल आशीष

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