मार्दव धर्म
मान निम्न रूपों में आता है…
अहंकार
तिरस्कार
ईर्षा भाव के रूप में
क्या मान करना स्वाभाविक नहीं है ?
नहीं, अज्ञानता का परिणाम है ।
अपनी प्रशंसा, दूसरों की निंदा करना भी मान का ही रूप है ।
मान को अपने जीवन से हटाने के लिये दूसरों के गुणों की प्रशंसा करें, अपने दोषों को देखें, सोचें की आत्मा के अनंत गुण हैं, मुझमें अगर थोड़े से गुण आ गये तो मैं इसमें इतरा क्यों रहा हूँ !
और ज्ञाता दृष्टा बनकर रहें, हम सब अपने जीवन में विनयशीलता लायें और मान को हटायें ।
One Response
मार्दव धर्म का तात्पर्य इसमें मृदता का भाव नहीं होना। अपने कुल रुप,जाति, बुद्धि का अभिमान नहीं करना चाहिए। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि मान निम्न रुपों में आता है, अंहकार, तिरस्कार और ईर्ष्या के भाव होना।यह कि मान करना स्वाभाविक नहीं है बल्कि अज्ञानता का परिणाम है। अपनी प़शंसा और दूसरों की निन्दा करना मान का ही रुप है। अतः मान को अपने जीवन से हटाने के लिए दुसरों के गुणों की प्रशंसा करें, अपने दोषों को देखना चाहिए।आत्मा में अनन्त गुण हैं,अगर थोड़े गुण आ गये तो इतराना क्यों करते हो, अपने जीवन में विनयशीलता लावें और मान को हटाने का प्रयास करना चाहिए।