दान
स्व-धन/वस्तु का त्याग,
जिससे “स्व”, “पर” का उपकार हो;
“स्व” का उपकार ?
अपनी आत्मा का उपकार।
कैसे होगा ?
जिनालय, जिनवाणी, जिन गुरु* के लिये धन/वस्तु का उपयोग करने से।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
* जिन = भगवान, गुरु = ऐसे गुरु जो सच्चे भगवान की सच्ची साधना में लगे रहते हों।
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दान का तात्पर्य अपनी वस्तु किसी को अर्पित करना है। उपरोक्त कथन सत्य है कि स्व धन या वस्तु का त्याग, इसमें पर का उपकार एवं स्वयं का भी होता है। जिनालय, जिनवाणी, भगवान्, गुरु के उपयोग में आने वाली वस्तु के दान से अपनी आत्मा का भी उपकार होता है। अतः जीवन में अपनी शक्ति अनुसार दान देना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।