धर्म/अधर्म की सहकारता
हर प्रदेश पर धर्म और अधर्म विद्यमान हैं, तो जीव/पुदगल चले या रुके ?
दोनों ही उदासीन हैं, जीव/पुदगल चलना चाहें तो धर्म द्रव्य सहकारी रहेगा, रुकना चाहें तो अधर्म द्र्व्य ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
हर प्रदेश पर धर्म और अधर्म विद्यमान हैं, तो जीव/पुदगल चले या रुके ?
दोनों ही उदासीन हैं, जीव/पुदगल चलना चाहें तो धर्म द्रव्य सहकारी रहेगा, रुकना चाहें तो अधर्म द्र्व्य ।
पं. रतनलाल बैनाड़ा जी