धर्मी / आचरणवान
ज़रूरी नहीं कि धर्मी आचरणवान हो ही। हरी बत्ती पर गाड़ी चलाए, धर्मी; लाल पर रोके, आचरणवान। आप धर्मी हों, तो पाप करना छोड़ दें; पापी हों, तो धर्म करना शुरु कर दें।
धर्म-भावना आचरण में प्रवृत्ति करेगी ही। दीपक जले और अंधकार न भागे, सम्भव ही नहीं! कम से कम संतुष्टि, प्रसन्नता, निराकुलता, सात्विकता, और प्रवृत्तियों में शालीनता आना तुरंत शुरू हो जायेंगी।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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उपरोक्त कथन सत्य है कि धर्मी ज़रुरी नहीं कि वह आचरणवान हो। अतः जो धर्मी मानना चाहता हो तो उसे पाप करना छोड़ना आवश्यक है, यदि पापी हो तो धर्म का आलम्बन लेना चाहिए। अतः धर्म न कर सको तो कमसे कम अर्धम करना छोड़ना आवश्यक है। अतः कमसे कम संतुष्टि, प्रसन्नता, निराकुलता, सात्विकता एवं पृवितियो में शालीनता आना शुरू हो जावेगी। अतः जीवन में आचरण व्यवहार पवित्र होना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।