मालिक
कैसी विडम्बना है कि हम जीवन-पर्यंत अपने आपको उन चीज़ों का ही मालिक मानते हैं, जो हमें बुढ़ापे में सबसे ज़्यादा परेशान करती हैं; हमारी सुनती ही नहीं; हालाँकि वे हैं हमारे सबसे क़रीब: संतान, आंख, पैर, आदि।
मुनि श्री सुधासागर जी
कैसी विडम्बना है कि हम जीवन-पर्यंत अपने आपको उन चीज़ों का ही मालिक मानते हैं, जो हमें बुढ़ापे में सबसे ज़्यादा परेशान करती हैं; हमारी सुनती ही नहीं; हालाँकि वे हैं हमारे सबसे क़रीब: संतान, आंख, पैर, आदि।
मुनि श्री सुधासागर जी
One Response
उपरोक्त कथन सत्य है कि आजकल मनुष्य जीवन भर मालिकाना हक रखता है, चाहे धन, मकान, बच्चे हों लेकिन यह नहीं जानता कि यह सब नश्वर है। अतः मनुष्य को मालिक बनना छोड़ना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है। अतः कमसे कम वृद्धावस्था में सब छोड़कर ही अपना कल्याण करने में समर्थ हो सकता है।जीवन में आत्महित की सोचना ही धर्म है।